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ग़ज़ल ...चार दीवारें भी हों छतों के लिये

212   212    212    212

चार दीवारें भी हों छतों के लिये

और क्या चाहिये मुफलिसों के लिये

महफिलें भूख की हो रहीं हैं ज़बां
है सियासत मगर रहबरों के लिये

अत्ड़ियाँ पेट की घुटनों से मिल गईं 
अब कहाँ तक झुकें रहमतों के लिये

जिन दरख्तों तले पल रहा आदमी 
प्यार की हो नमी उन जड़ों के लिये 

लाख ​दौलत अकूबत है हासिल जिन्हें  ​

वो तरसते ​मिले ​कहकहों के लिये

ठोकरें नफरतें झिड़कियों के सिवा
और रक्खा है क्या हरिजनों के लिये

बन्द कर लो भले दर दरीचा मगर
​है ​झरोंखा जरुरी घरों के लिये

​(मौलिक एवं अप्रकाशित )​

​©बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 30, 2016 at 9:40am

ह्रदय से अभिनन्दन वन्दन आदरणीय  धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 30, 2016 at 9:39am

आपके अमूल्य समय....स्नेह के लिए हार्दिक अभिनन्दन वन्दन आदरणीय  मिथिलेश वामनकर जी 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 30, 2016 at 9:36am

रचना पटल पे आपका स्वागत एवं आभार आदरणीया  rajesh kumari जी 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 30, 2016 at 9:34am

आदरणीय गुरुदेव  गिरिराज भंडारी जी आपके सुझाव सर्वथा उचित हैं विस्तृत समीक्षा एवं मार्गदर्शन के लिए सदैव आभारी रहूँगा स्नेह बनाए रखें ..

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:34pm

अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय बृजेश जी, दद कुबूल करें।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 26, 2016 at 11:11pm

आदरणीय बृजेश जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. हार्दिक बधाई. बाकी गुनीजनों द्वारा मार्गदर्शन किया गया है उस पर अवश्य गौर कीजियेगा.

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 26, 2016 at 9:43pm

रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीय  Ravi Shukla जी...आपके समय आपके स्नेह एवं विस्तृत समीक्षा से लिखना सफल हुआ...इन पँक्तियों में सिर्फ एक कटाक्ष किया है...जिस तरह आज राजनितिक पार्टियाँ दलितमय हो रहीं हैं अपने सभी कर्मों को दलित का चोला ओढ़ा रहे हैं बस उसी को उजागर करने की कोशिश की है आगे आप जो आदेश दें ...

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 26, 2016 at 9:34pm

रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीय  Samar kabeer जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 26, 2016 at 3:19pm

वाह्ह बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है  बृजेश जी  दिल से बधाई  लीजिये |आ० गिरिराज जी ने सही इस्स्लाह  दी  है|  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 25, 2016 at 8:15pm

आ. बृजेश भाई , अच्छी गज़ल कही है दिली बधाइयाँ स्वीकार करे । कुछ टंकण की गलतिया हैं सुधार लीजियेगा ।

लाख दौलत अकूबत मुबारक उन्हें    --   इस मिसरे को ऐसे कहें --  लाख दौलत अकूबत है हासिल जिन्हें
वो तरसते मगर कहकहों के लिये                                              वो तरसते मिले कहकहों के लिये     

अगर सही लगे तो ?   

इक झरोंखा जरुरी घरों के लिये     --   इस मिसरे में -- है - की कमी लग रही है  , ऐसे कर लें -  है झरोंखा जरुरी घरों के लिये                         

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