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घेरि-घेरि घनघोर घटा अति स्नेह-सुधा बरसाए जन में।
चमक चंचला हाय! विरही मन की तपन बढ़ाये छन में।।

भीग-भीग हिय गीत प्रीत के गाये सुख पाये सावन में।
झूम-झूम तरु राग वागश्री गाएं हरषाएं जीवन में।।

टर्र-टर्र टर्राएं दादुर अति रति भाव जगा निज मन में।
म्याव-म्याव धुन गाये, नाचे मोर मोरनी के सँग वन में।।

कुहुक-कुहुक कर गाये कोयल हृदय चुराए छिप उपवन में।
सुखमय यह सावन मनभावन अति सुख लाये हर जीवन में।।


रचना-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 22, 2016 at 6:01pm

इस सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीय रामबली जी | 

Comment by रामबली गुप्ता on July 21, 2016 at 4:37pm
सादर आभार आद0 गिरिराज भंडारी जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 21, 2016 at 10:37am

आदरनीय राम बली भाई , सुन्दर श्रावणी रचना के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by रामबली गुप्ता on July 20, 2016 at 10:54pm
आद0 समर कबीर जी रचना आपको पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया। इसके लिए आपको हृदयतल से आभार।सादर
Comment by Samar kabeer on July 20, 2016 at 6:09pm
जनाब रामबली गुप्ता जी आदाब,इस सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
Comment by रामबली गुप्ता on July 20, 2016 at 4:00pm
आद0 अशोक रक्ताले जी रचना के भावों को मान देने के लिए आपका हृदय से आभार।
उक्त पंक्ति में एक मात्रा कम होने के कारण ऐसा प्रतीत हो रहा है। संशोधन कर चुका हूँ।सादर
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 20, 2016 at 2:04pm

कुहुक-कुहुक कर गाये कोयल हृदय चुराए छिप उपवन में।
सुखमय यह सावन मनभावन अति सुख लाये हर जीवन में।।......वाह ! बहुत सुंदर.

आदरणीय रामबली गुप्ता जी सादर, बहुत सुंदर द्विपदियाँ रची हैं बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. फिरभी //चमक चंचला हाय! विरही मन की तपन बढ़ाये छन में।।//......इस पंक्ति में गेयता कुछ कम लग रही है. देख लें. सादर.

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