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दोहे (एक प्रयास ) /अलका चंगा

दोहे (एक प्रयास )

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नैनन में ममता लिए,होंठों पर मुस्कान।
भिड़ जाए सन्सार से , जातक पे कुर्बान।।
-.-
अञ्चल में माँ सींचती,अमृत का भण्डार।
ऋषि हो चाहे देवता ,सीस झुकाते द्वार।।
-.-
संघर्षों से डरू नहीं ,माँ तुम हो जो पास ।
अंधेरे जब बढ़ गए,पाई तुमसे आस ।।
-.-
माता तुम जो बोलती, वहि मेरा है कर्म।
पाया भाव यहि तुमसे , जीवित रखना धर्म।।
-.-
कान्हा हो सुत रूप में ,चाहे हो बलराम।
मात यसोदा रूप है, नित्ये करो प्रणाम ।।

-.-

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by अलका 'कृष्णांशी' on September 15, 2016 at 5:14pm

आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण ' जी, मेरे सृजन की सराहना और सुझाव के लिए हार्दिक अभिनन्दन आपका, आपके सुझाव अनुसार संशोधन किया है
बाकि के शब्द डरूं, वही, यही बदलने से मात्रा क्रम में अटक रहि हूँ

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 12, 2016 at 6:12pm
आदरणीया अल्का चंगा जी सभी दोहे भावपूर्ण एवं सुन्दर हैं। बहुत ही अच्छा प्रयास हुआ है।
मेरे ख्याल से
अमरत के स्थान पर अमृत
द्धार के स्थान पर द्वार
सन्घर्षों के स्थान पर संघर्षों
होना अधिक उचित होगा।
अंधेरे जहाँ बढ गए में मात्राओं को जरा जांच लें।
बाकी आदरणीय श्री अशोक कुमार रक्ताताले जी ने आपको बता ही दिया है।
बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by अलका 'कृष्णांशी' on September 12, 2016 at 3:51pm

आदरणीय अशोक कुमार जी , मेरे अल्पज्ञान के मुताबिक संशोधन किया है साथ/ साथ की जगह पास / आस। ...और नित्य का नित्ये
बाकि के शब्द ऋषी, डरू, वहि, यहि.// ऋषि , डरूं, वही, यही बदलने से मात्रा क्रम में अटक रहि हूँ

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on September 12, 2016 at 1:16pm

आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी नमस्कार , आपने  मेरे सृजन को पढ़ा सराहा उसके लिए हार्दिक अभिनन्दन आपका

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on September 12, 2016 at 1:14pm

आदरणीय अशोक कुमार  जी नमस्कार , आपने मेरे दोहों को पढ़ा सराहा उसके लिए मैं आपका हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ ...आपने जिस ओर ध्यान दिलाया है उसका मैं आगे से जरूर ख्याल रखूंगी ..आभार आपका ..

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 11, 2016 at 7:45pm

आदरणीया अलका चंगा जी सादर, दोहों पर सुंदर प्रयास हुआ है. सतत प्रयास से अवश्य ही सुधार भी होगा. इस प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें.

कुछ शब्द जो सही रूप में नहीं हैं - ऋषी, डरू, वहि, यहि.// ऋषि , डरूं, वही, यही.

दोहों में तुकांत प्रयोग होता है इस दृष्टि से साथ /साथ. सही नहीं है.

पाया भाव यहि तुमसे.......दोहे में विषम चरण का अंत लघु गुरु अथवा लघु -लघु -लघु /नगण से ही श्रेष्ठ है.

नित्य करो प्रणाम.........यहाँ एक मात्रा कम रह गई है.

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 9, 2016 at 8:45pm
बढ़िया, सुंदर भावपूर्ण दोहा-छंद प्रयास हेतु हृदयतल से बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ आदरणीया अलका चांगा जी। छंद विषयक विवेचना गुणीजन ही कर सकेंगे। सफल प्रयास!

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