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ग़ज़ल : दिल के पन्नों पर

2122  2122  2122  212
दिल के पन्नों पर तुम्हारी याद उभरी जाय है,
तुम नहीं तो हर ख़ुशी अब ग़म में ढलती जाय है,
 
मैंने मुठ्ठी में कभी बाँधा नहीं पर जिन्दगी,
रेत की मानिंद हाथों से फिसलती जाय है,
 
आज क्यूँ मौसम भी हँसता गुनगुनाता जा रहा,
क्या तेरी खुशबू फ़िज़ा महसूस करती जाय है,
 
आँख की डिबिया में कितने ख़्वाब मेरी बन्द थे,
अब जरुरत के तले हर चाह मरती जाय है,
 
कैसे अपने मुल्क को महफूज़ रक्खें हम जहाँ,
जिन्दगी ही जिन्दगी का क़त्ल करती जाय है... !!अनुश्री!!
मौलिक और अप्रकाशित .... 

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Comment by नाथ सोनांचली on December 13, 2016 at 1:41am
आद0 अनीता मौर्या जी आपको बेहतरीन गजल कहने के लिए दाद के साथ मुबारकबाद।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 12, 2016 at 11:51pm

आदरणीया अनीता मौर्या जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर दाद कुबूल फरमाएं. ऐब-ए-तनाफुर उसे कहते हैं जब किसी शब्द का आख़री अक्षर और उसके बाद के शब्द का पहला अक्षर एक हों,जैसे आपके मिसरे में 'मुल्क को' जिससे उच्चारण में 'क' की टक्कर से 'मुल्क्को' होने की सम्भावना रहती है. सादर 

Comment by Anita Maurya on December 12, 2016 at 10:19pm

बहुत बहुत शुक्रिया महेंद्र जी... 

Comment by Anita Maurya on December 12, 2016 at 10:19pm

Samar Kabeer जी मुझे  ऐब-ए-तनाफ़ुर के बारे में कुछ भी नहीं पता, कृपया मार्गदर्शन करें .. 

Comment by Mahendra Kumar on December 12, 2016 at 9:16pm
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल है आदरणीया अनीता जी। हार्दिक बधाई। सादर।
Comment by Samar kabeer on December 12, 2016 at 10:34am
मोहतरमा अनीता मौर्या जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
आख़री शैर के ऊला मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर का दोष है,'मुल्क को'देख लें ।

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"हार्दिक आभार आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी"
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