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जिन्दगी फिर जिन्दगी लगने लगी,
तुम मिले दुनिया नयी लगने लगी,
तुमने सींचा जब वफ़ा और प्यार से,
फिर जमीं दिल की हरी लगने लगी,
रात के कोसे में चमका चाँद जब,
हर घड़ी तेरी कमी लगने लगी,
तुमने देखा जब नज़र भर प्यार से,
रूह अपनी अज़नबी लगने लगी,
कबसे आँखों ने सहर देखी नहीं,
दीद तेरी लाजिमी लगने लगी..... !!अनुश्री!!
मौलिक और अप्रकाशित...
Comment
खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई।
आदरणीया अनिता जी , ग़ज़ल अच्छी कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ,
मतले की काफिया बन्दी देखियेगा -- ज़िन्दगी और हसीं और ज़मीं हम काफिया नही हो सकते , इस लिये आ. मिथिलेश भाई की सलाह पर गौर करियेगा
मुहतरमा अनीता साहिबा , अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं --
आपकी ग़ज़ल में " हसीं " और " ज़मीं " के क़ाफिये सही नहीं हैं
अगर मुनासिब समझें तो " हसीं " की जगह " भली " कर लें
शेर 2 का सानी मिसरा बहर में नहीं है , उसे चाहें तो इस तरह कर लें
" फिर ज़मीं दिल की हरी लगने लगी "
आदरणीया अनीता जी, बढ़िया ग़ज़ल का प्रयास हुआ है, हार्दिक बधाई.
जिन्दगी फिर जिन्दगी लगने लगी,
तुम मिले दुनिया नई लगने लगी,
तुमने सींचा जब वफ़ा औ' प्यार से,
दिल की धरती फिर हरी लगने लगी,
भाव आपके ही हैं बस काफियाबंदी के लिए.....सादर
समर सर हार्दिक आभार आपका, ऐसे ही मार्गदर्शन करते रहियेगा, सुरेन्द्र जी, सुशील जी और सुरेश जी, बहुत बहुत आभार....
तुमने देखा जब नज़र भर प्यार से,
रूह अपनी अज़नबी लगने लगी,
कबसे आँखों ने सहर देखा नहीं,
दीद तेरी लाजिमी लगने लगी.....
वाह आदरणीया बहुत ही दिलकश अशआर हुए हैं आपकी ग़ज़ल के। हार्दिक मुबारकबाद कबूल फरमाएं।
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