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रोशनी में सिसकियां (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

रोशनी की किरण के रास्ते को जब उस युवती ने अपनी हथेली से बाधित किया तो उसकी चारों उंगलियां लालिमा पाकर उसे भाव संसार में ले गईं।
"लोकतंत्र के चारों स्तंभों में नारी भी सक्रिय है, नारी का महान योगदान है!" यही तो उसकी मां ने उसे बताया, समझाया और फिर इस लायक बनाया कि वह आज इन सभी के संपर्क में है बतौर मीडियाकर्मी। मां की मधुर स्मृतियां उसे भाव संसार में ले गईं। कुछ पल ही गुज़रे कि उसकी आंखों से आंसू लाल गालों को गर्माहट सी देने लगे।
"परिपक्व कहलाने वाले हमारे इस लोकतंत्र के चारों स्तंभ आज भी नारी के लिए उतना नहीं कर पा रहे, जितना कि नारी को भुना रहे हैं!" उसके अंतर्मन ने कराहते हुए कहा- "पांचवें स्तंभ रूपी जनता लोकतंत्र की रोशनी में भी अंधकार से पीड़ित है! नारी आज भी भोग्या ही है न!" युवती अपनी हथेली की चारों उंगलियां देखती हुई अपने अब तक के बुरे तज़ुर्बों के संसार में खो गई कुछ सिसकियों के साथ।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 26, 2017 at 7:16pm
रचना पर समय देकर हौसला अफज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय तेज वीर सिंह जी, आदरणीय कल्पना भट्ट जी, जनाब समर कबीर साहब और आदरणीय नीलम उपाध्याय जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 26, 2017 at 7:15pm
रचना पटल पर और ओबीओ पर सादर हार्दिक स्वागत अभिनंदन मुहतरम जनाब अफ़रोज़ 'सहर' साहब। रचना पर समय देकर अनुमोदन व हौसला अफज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 26, 2017 at 7:12pm
बढ़िया सुझाव और प्रतिक्रिया व हौसला अफज़ाई के लिए सादर हार्दिक आभार आदरणीय महेंद्र कुमार साहब, आदरणीय नीता कसार जी और आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ साहब। दरअसल देश में महिलाएं ऐसे नकारात्मक हालात से जूझ रही हैं। सकारात्मक प्रतीकात्मक अंत भी किया जा सकता है। बिल्कुल सही कहा आपने।
Comment by Nita Kasar on September 16, 2017 at 3:05pm
नारी आखिर निरीह,बेचारी ही रह गई।।एेसा समाज हो जिसमें महिला सम्मानित,गर्व से भरपूर जीवन जी सके।महिला सशक्तिकरण से जुड़ी कथा मुझे हमेशा प्रभावित करती है ।अंतिम पंक्ति को कुछ एेसा भी कर सकते है देश के अहम ओहदे तक महिला पहुँच रही है ।समय ही नही समाज और सोच बदल रही है ।बधाई आद० उस्मानी जी ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 14, 2017 at 5:42pm

बढ़िया लेखन हो रहा है आपका जनाब शहजाद भाई , बिम्बों का इस्तमाल कर बड़ी ही मार्मिक कथा लिखी है आपने |दिली बधाई भाई आपको |

Comment by Mohammed Arif on September 12, 2017 at 2:48pm
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब, बेहतरीन प्रतीकात्मक लघुकथा का प्रयास ।
आपने इससे पहले भी प्रजातंत्र के स्तंभों को आधार बनाते लघुकथाएँ लिखीं है । विषय और बेहतर हो सकता था । बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Samar kabeer on September 12, 2017 at 10:58am
जनाब अफ़रोज़'सहर'साहिब आदाब,आपका ओबीओ मंच पर स्वागत है ।
Comment by Afroz 'sahr' on September 12, 2017 at 12:50am
बहुत ही सुंदर लघु कथा है!
आदरणीय शैख़ शहज़ाद उस्मानी साहब बधाई स्वीकार करें!
Comment by Mahendra Kumar on September 11, 2017 at 8:27pm

आ. शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी, इस बढ़िया लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. एक सुझाव है, शायद आपको पसन्द आये. मुझे लगता है कि अन्त में यह कहने के बजाय कि //(वह) अपने अब तक के बुरे तज़ुर्बों के संसार में खो गई कुछ सिसकियों के साथ।// यदि हम उसकी हथेली के साथ कोई प्रतीकात्मक पंक्ति रचें तो वह लघुकथा को एक अलग स्तर पर ले जाएगी. सादर.

Comment by Samar kabeer on September 11, 2017 at 7:32pm
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,बहुत ही कम शब्दों में मार्मिक लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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