इससे पहले के तुम दर्पण निहारों
मैं इन केशों में इक वेणी लगा दूँ
लो रख दी बाँसुरी धरती पे मैंने
तुम्हें गाकर के मैं लोरी सुला दूँ
समीरण रुक गई है बहते बहते
कहो तो शाख पेडो की हिला दूँ
पवन से वेग की इच्छा अगर है
कहो तो अंक में लेकर झूला दूँ
सुगंधित हैं सुमन उपवन के सगरे
बताओ कौन सा मैं पुष्प ला दूँ
घटा आकाश में छाने को व्याकुल
कहो तो नयनों में तुमको बिठा लूँ
रहेगा प्रेम सदियों तक हमारा
कहो तो इसको भी अमृत पिला दूँ
पुकारें लोग राधे-श्याम मुझको
नहीं संभव के मैं तुमको भूला दूँ
मौलिक व अप्र्काशित
- प्रदीप देवीशरण भट्ट-06.01.2020
Comment
समर जी शुक्रिया, मैं अवश्य सज्ञांन (देखिए फिर गडबड हो गई) लूगाँ।
शुक्रिया सुरेंद्र जी
शुक्रिया लक्ष्मण जी, फोंट की ज़बरदस्त समस्या है टाइप करते करते अपने बदल जाता है, सुझाव के शुक्रिया
जनाब प्रदीप जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
जननब लक्ष्मण धामी जी की बात का संज्ञान लें ।
'इससे पहले के तुम दर्पण निहारों'
इस पंक्ति में 'निहारों' को "निहारो" कर लें ।
'तुम्हें गाकर के मैं लोरी सुला दूँ'
इस पंक्ति में 'कर' के साथ 'के' का प्रयोग उचित नहीं,यूँ लिखें:-
'तुम्हें गा गा के में लोरी सुला दूँ'
आद0 प्रदीप देवीशरण भट्ट जी सादर अभिवादन। आपका शब्द चयन और उनकी बुनाई से अलहदा सृजन मन को मोह लेता है। पुकारें लोग राधे श्याम मुझको,, नहीं सम्भव कि मैं तुमको भुला दू,, क्या गज़ब भाव सम्प्रेषण है बन्धुवर। बहुत बहुत बधाई इस सृजन पर।
आ. भाई प्रदीप देवीशरण भट्ट जी, सादर अभिवादन।
बहुत अच्छी और भावनाप्रधान रचना हुई है ।ढेरों बधाई स्वीकारें ।" पेडो" की जगह " पेड़ों " कर लीजिएगा।
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