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ग़ज़ल-जैसा जग है वैसा ही हो जाऊँ तो

बह्र-ए-मीर
पतझर में भी गीत बसंती गाऊँ तो
जैसा जग है वैसा ही हो जाऊँ तो

अंदर का अँधियारा क्या छट जायेगा
कोशिश करके बाहर दीप जलाऊँ तो

शायद लौट चले आएं रूठे पलछिन
फूलों से जो उनकी राह सजाऊँ तो

कार्य हमारे भी सारे सध जायेंगे
सुविधा शुल्क लिये ये हाथ बढ़ाऊँ तो

जग सारा देखेगा 'ब्रज' के पांव फटे
जो चादर के बाहर पग फैलाऊँ तो


(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment

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Comment by Samar kabeer on August 18, 2020 at 4:10pm

जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'फूल गुलों से उनकी राह सजाऊँ तो'

इस मिसरे में 'फूल' और 'गुल' एक ही बात है,मिसरा यूँ कर सकते हैं:-

'फूलों से मैं उनकी राह सजाऊँ तो'

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2020 at 3:38pm

आ. भाई बृजेश जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।

Comment by नाथ सोनांचली on August 17, 2020 at 4:36pm

आद0 बृजेश कुमार ब्रज जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल हुई है। बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on August 15, 2020 at 4:11pm

आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' साहिब, नमस्कार। हिन्दी की ख़ुशबू से महकती इस सुंदर ग़ज़ल पर आपको हार्दिक बधाई! बहुत बढ़िया अशआर हुए हैं जनाब!

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