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बड़ी दिल-जू रही सूरत हमारी
उदासी खा गई सूरत हमारी
ग़मों को एक चहरा चाहिए था
उन्हें भी भा गई सूरत हमारी
सभी हैरान होकर देखते हैं
लगे सबको नई सूरत हमारी
न जाने कौन शब भर ख़्वाब में था
किसे अच्छी लगी सूरत हमारी
हमारे लब भले चुप हो गये 'ब्रज'
कहे हर अनकही सूरत हमारी
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
भाई जैफ आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आ. बज्र जी, उस्ताद समर सर जी की बात सही है, 'रेख़्ता' में काफ़ी चीज़ें ग़लत हैं।
और ये ग़ज़ल बहुत ख़ूब हुई। सादर
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय समर जी मार्गदर्शन के लिए...
'सभी हैरान होकर देखते हैं'
ये मिसरा बहतर है ।
आदरणीय समर जी आपकी बात दुरुस्त है...सुधार किया जा सकता है जैसे "सभी हैरान होकर देखते हैं" सादर
आदरणीया सुधा जी आपका हार्दिक अभिनंदन संग आभार
//रेख़्ता पे "हैरानगी" शब्द बताया गया है//
रेख़्ता पर ग़लत बताया गया है, इसी तरह की और बहुत सी जानकारियाँ रेख़्ता पर ग़लत बताई जाती हैं,वो भरोसे लाइक़ नहीं है,आगे आप देख लें आपको क्या सहीह लगता है ।
जनाब ब्रज जी,
नमस्कार
आपने बहुत अच्छी गजल कही है बधाई स्वीकार करें।
रचना पटल पे आपकी गरिमामई उपस्थित के लिए हार्दिक आभार आदरणीय समर जी...रेख़्ता पे "हैरानगी" शब्द बताया गया है!?
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'सभी हैरानगी से देखते हैं'
इस मिसरे में 'हैरानगी' शब्द सहीह नहीं है, सहीह शब्द है "हैरानी" देखिएगा ।
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