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कुछ दिनों पहले घाट पर अपने मित्र मनोज मयंक जी के साथ बैठा था| रात हो चली थी और घाटों के किनारे लगी हाई मॉइस्ट बत्तियाँ गंगाजल में सुन्दर प्रतिबिम्ब बना रही थीं और मेरे मन में कुछ उपजने लगा जो आपके साथ साझा कर रहा हूँ| इस ग़ज़ल को वास्तव में ग़ज़ल का रूप देने में 'वीनस केसरी' जी का अप्रतिम योगदान है और इसलिए उनका उल्लेख करना आवश्यक है| ग़ज़ल में जहाँ-जहाँ 'इटैलिक्स' में शब्द हैं वे वीनस जी द्वारा इस्लाह किये गए हैं| ग़ज़ल की बह्र है २२१/१२२१/१२२१/२१२ तथा काफ़िया एवं रदीफ़ हैं 'आब' व 'है' |

--------

किसको है ख़बर इसकी ये सच है या ख़्वाब है;
हर रात बनारस की बड़ी लाजवाब है;

*
कोतवाल है भैरव तो कलक्टर हैं भोले बा,
गंगा में नहा लो यहाँ मिलता सवाब है;

*
मुल्क अपना अगर कोई गुलिस्तान मान लें,
ये शहर बनारस कोई खिलता गुलाब है;

*

कहने को बहुत कुछ था मगर कुछ ही कह सका,
लेकिन जो कहा उसका न मिलता जवाब है
;

*
अल्फ़ाज़ तूने मुंह से न गिरने दिए कभी,
लेकिन ये नज़र तेरी नुमाया किताब है;

*
मैंने न कहा कुछ न कभी की शिक़ायतें,
किस बात पे फिर आपको शिकवा जनाब है;

*
इख़्लाक़ भी है तुझमें तू मुख़लिस भी है मगर,
हो जाए अगर हद से ज़ियादा अज़ाब है;

*
पाया है यहीं सब तू यहीं छोड़ जाएगा,
क्या जोड़-घटाना बेगरज़ जब हिसाब है;

*
है कौन यहाँ किसकी तरफ़ किसको है पता,

'वाहिद' तू संभल जा के ज़माना ख़राब है;

-----------------------------------------------------
मुश्किल अलफ़ाज़ के मायने - इख़्लाक़ - नैतिकता /मुख़लिस - साफ़-सच्चा/ अज़ाब - तकलीफ़देह

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Comment by rajesh kumari on April 25, 2012 at 6:29pm

मुल्क अपना अगर कोई गुलिस्तान मान लें,
ये शहर बनारस कोई खिलता गुलाब है;bahut khoobsurat sher isko padhkar to banaras dekhne ki ichcha balvati ho gai .....bahut sundar ghazal sabhi sher daad ke kabil hain.

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 24, 2012 at 12:53pm

आदरणीय कुशवाहा जी,

आपकी प्रसन्नता में ही हमारी प्रसन्नता भी समाहित है| भाषा पर आपकी पकड़ निस्संदेह मुझसे बेहतर है| आपकी बधाई सहर्ष स्वीकार है| :-)

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 24, 2012 at 12:31pm
स्नेही वाहिद जी, सादर
मुझे बहुत प्रसन्नता है कि प्रतिदिन आप नए आयाम स्थापित कर रहे हैं. आपकी कीर्ति मुझे परम आनंद  देती है. शुभ कामनाये. हिंदी गलत हो जाये तो मेरे भाव ही समझ लीजियेगा. बधाई.  
Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 23, 2012 at 8:26pm

शुक्रिया राकेश भाई| वीनस जी का सहयोग तो है ही मगर जब आपने सीखने की लगन दिखाई तो मुझे लगा कि मैं चुपचाप हाथ पर हाथ धरे क्यूँ बैठा रहूँ| अतः मेरी इस ग़ज़ल के आकार में आने में परोक्ष रूप से ही सही आपका भी योगदान है| :-))

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 23, 2012 at 8:24pm

हार्दिक आभार महिमा जी! आपने सराहा तो लगा कि अब थोड़ा बहुत लिखना आ रहा है|

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 23, 2012 at 8:23pm

आदरणीय अभिनव जी,

मेरी ही तरह आप भी काशीवासी हैं और आप से बेहतर इसे कौन समझ सकता था| आपके प्रोत्साहन ने नयी ऊर्जा का संचार किया है| सादर,

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 23, 2012 at 8:22pm

आदरणीय गणेश जी,

यदि ओबी ओ जैसे मंच पर आकर इतना भी न कर पाऊं तो इसे मेरी कमज़ोरी या कामचोरी ही कहा जाएगा| आप सभी लोगों से इतना कुछ सीखने को मिला है कि उसे शब्दों में बता पाना बहुत ही दुष्कर है| मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि मेरे लिखे से कोई बनारस से खुद को जोड़ सका| ऐसा लग रहा है कि लिखना सार्थक हुआ| :-) आपका आभारी हूँ|

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 23, 2012 at 8:20pm

आदरणीय दया शंकर जी,

आपकी प्रथम प्रतिक्रिया ने आह्लादित और अनुगृहित दोनों ही किया| हार्दिक आभार,

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 23, 2012 at 8:19pm

आदरणीय सौरभ जी,

आपकी बातें सदैव ही एक टिप्पणी या प्रतिक्रिया से बढ़ कर होती हैं और देखा जाए तो उनमें बहुत सी सार्थक बातें होती हैं| फ़िलहाल प्रोत्साहित करने के लिए आपका हार्दिक आभार! हाँ बनारस को मैं बहुत गहरे अंदर से जीता हूँ और मेरा ये मानना है कि जिसने इसे जिया नहीं उसने इसे जाना नहीं! :))

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 23, 2012 at 8:17pm

आभार आपका 'MRIDU' जी.. :))

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