जैसे ही मैंने दरवाजा खोला
भारत माँ व्यथित खड़ी थी
बेगैरत जुलूस निकल रहे थे
संस्कृति जमीन में गडी थी
झूठ के महल दमक रहे थे
सच्चाई झोंपड़ी में पड़ी थी
अमीरी के झरने बह रहे थे
गरीबी तुच्छ पंक में सड़ी थी
भ्रष्टाचारी अट्टाहस कर रहे थे
नेक नयन में अश्रु की झड़ी थी
वृक्ष और पर्वत कट रहे थे
पर्यावरण में खूब हड़बड़ी थी
तपिश से हिम नद पिघल रहे थे
सुनामी तबाही पे अड़ी थी
देखकर स्नायु तंत्रिकाओं ने द्वन्द किया
Comment
वाह .. सच्चाइयों से आँखें मूँदने का क्या ही सटीक वर्णन हुआ है.
आदरणीया राजेश कुमारी जी, बधाई
thanks a lot albela ji .
आपकी लेखनी में अगर आग है राजेश कुमारी जी..........तो हम भी बारूद लिए बैठे हैं समर्थन और प्रोत्साहन का ..........आप से आशाएं हैं.........शुभकामनायें !
अरुणेन्द्र मिश्र जी यही तो इस कविता के माध्यम से मैं कहना चाह रही थी हार्दिक आभार
वंदना जी हार्दिक आभार की मेरी कविता में छुपे हुए कटाक्ष को आपने सराहा
अलबेला खत्री जी सबसे पहले तो हार्दिक आभार कहना चाहूंगी कविता को सराहने के लिए ,दूसरी बात बहुत ख़ुशी हुई की जो मैं कविता के द्वारा कहना चाहती थी मेरी लेखनी समझाने में सफल हुई ,देश में क्या हो रहा है यह देखते हुए भी अधिकतर लोग अपना दरवाजा ही बंद कर देते हैं लेकिन अब वक़्त है मस्तिष्क का दरवाजा खोल कर रखना और परिस्थितियों को सुधारना कविता के मर्म को समझने के लिए बहुत आभार
प्रदीप कुशवाह जी मुझे ख़ुशी है की आप मेरी कविता के मर्म तक पहुचे
आदरणीय राजेश कुमारी जी ....
अत्यंत सुन्दर रचना ....अब तो विद्रोह का द्वार खोलने की बात होनी चाहिए...
सम्मान्य राजेश कुमारी जी,
सबसे पहले तो इस अनुपम कविता के लिए बधाई स्वीकारिये और फिर मेरा निवेदन है कि दरवाज़ा बन्द न करें प्लीज़ ..........यही तो वो समय है जब आपको अपनी संचित शक्ति का उपयोग करके उन हालात को बदलना है जिनसे वितृष्णा होती है और दरवाज़ा बन्द करने को मन करता है
सादर
आदरणीय राजेश कुमारी जी, सादर
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