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गज़ल/ अनजान रहा अक्सर

दीदार का बस तेरे अरमान रहा अक्सर

इस प्यार से तू मेरे अनजान रहा अक्सर

 

बाजार में दुनिया के हर चीज तो मिलती है

तेरे हबीबों में भी धनवान रहा अक्सर

 

जिस वक्त दुनिया में था घनघोर कहर बरपा

उस वक्त भी रौशन ये श्मशान रहा अक्सर

 

हर ओर इन गलियों में इक शोर सा मचता है

हाकिम का ही तो यह भी एहसान रहा अक्सर

 

मेरी मुरादों ने अपना रूप बदल डाला

ईमान के चक्कर में नुकसान रहा अक्सर

                                    -  बृजेश नीरज

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Comment by बृजेश नीरज on March 24, 2013 at 7:47pm

वंदना जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 24, 2013 at 7:46pm

आदरणीय लक्ष्मण जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 24, 2013 at 7:45pm

आदरणीय स्वर्ण जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 24, 2013 at 7:44pm

आदरणीय अशोक जी आपका आभार!

Comment by Vindu Babu on March 23, 2013 at 10:40pm
वाह क्या बात है।बहुत ही अच्छी तरह से शब्दो और भावों को सजाया है आपने।
मेरी मुरादो ने अपना रूप बदल डाला
इमान के...
अति सुन्दर
सादर
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 23, 2013 at 9:43am

उम्दा गजल, बहुत खूब, बधाई श्री ब्रिजेश कुमार सिंह जी 

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 23, 2013 at 9:04am

बहुत बढ़िया    जी 

"जिस वक्त दुनिया में था घनघोर कहर बरपा

उस वक्त भी रौशन ये श्मशान रहा अक्सर..."

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Comment by Ashok Kumar Raktale on March 23, 2013 at 8:43am

आदरणीय ब्रजेश 'नीरज' जी बढ़िया गजल दाद कुबुलें.

Comment by बृजेश नीरज on March 22, 2013 at 6:43pm

आदरणीय राम शिरोमणि जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 22, 2013 at 6:42pm

आदरणीय राजेश भाई आपका आभार!

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