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इस मंच पर ग़ज़ल कहने का प्रथम प्रयास.. एक तरही ग़ज़ल .."ज़रूरत से ज़ियादा क्यूँ करें हम?"

1222, 1222, 122.
.

ज़रूरत से ज़ियादा क्यूँ करें हम?
लहू दिल से निचोड़ा क्यूँ करें हम?
.

फ़ना हो जाएगा सबकुछ जहां में,
ये झूठा फिर दिखावा क्यूँ करें हम?
.

उगेंगे एक दिन कांटें ही कांटें,
ज़हन में याद बोया क्यूँ करें हम?
.

नहीं परवाह है उनको हमारी,
बिना कारण ही रोया क्यूँ करें हम?
.

हमारे काम खुद ही बोलतें है,
ज़ुबानी कोई दावा क्यूँ करें हम?
.

जुदा है रास्ते तुमसे हमारे,
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम?
.

तुम्हारे सामने हस्ती नहीं कुछ,
मगर इज्ज़त का सौदा क्यूँ करें हम?? 
.

अभी तो ज़ख्म अपने सब हरे है,
बता इनको कुरेदा क्यूँ करें हम?? 
.

मिलेगी कौनसी दौलत यहाँ पर,
किसी की क़ब्र खोदा क्यूँ करें हम? 
.

हकीक़त है पता ज़न्नत की हमको,
वहाँ का फिर इरादा क्यूँ करें हम? 
.

चलो अब ‘नूर’ चलते है यहाँ से,
किसी का वक़्त ज़ाया क्यूँ करें हम? 
.
निलेश 'नूर'
मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by विजय मिश्र on October 15, 2013 at 2:54pm
बेहतरीन गज़ल के लिए बधाई निलेशजी , बेशक अच्छी बनी है .
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 15, 2013 at 1:00pm

आदरणीय राजेश कुमारी जी की सलाह पर शेर में तरमीम कर दी है... आप सभी से सुझाव अपेक्षित है . 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 15, 2013 at 12:40pm

आप की आज्ञा सर माथें पर आदरणीय राजेश कुमारी जी .. आप ऐसे ही मेरी कॉपी जांचती रहिये तो गुणात्मक सुधार होगा लेखनी में.

 


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Comment by rajesh kumari on October 15, 2013 at 10:11am

वाह वाह वाह नीलेश जी एक या दो अशआर की बात नहीं करुँगी सभी लाजबाब हैं एक को कोट करुँगी तो दूसरे के  साथ ना इंसाफी होगी ,बस इस ग़ज़ल के लिए तो ढेरों दाद कबूलिये ,हाँ इस ग़ज़ल की खूबसूरती को देखते हुए रुका नहीं जा रहा बिना मांगे एक निजी राय देना चाहूंगी ---अभी तो ज़ख्म अपने सब हरे है,
         अभी इनको कुरेदा क्यूँ करें हम?? 

सानी में अगर -----बता इनको कुरेदा क्यूँ करें हम करेंगे तो कैसा रहेगा ? दोनो मिसरों में अभी का दोहराव शेर की ख़ूबसूरती घटा रहा है (मेरे ख्याल से )
.

Comment by Sushil.Joshi on October 15, 2013 at 5:06am

चलो अब ‘नूर’ चलते है यहाँ से,
किसी का वक़्त ज़ाया क्यूँ करें हम........ क्या बात है नीलेश भाई..... बधाई इस सुंदर गज़ल के लिए और आपका पहला प्रयास इतना सफल हुआ उसके लिए भी....

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 15, 2013 at 12:47am

सभी मित्रों का दिल से आभारी हूँ जो आप ने इतनी ध्यान से पढ़ा और सराहा. शुक्रिया

 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 14, 2013 at 9:29pm

आदरणीय नीलेश जी ..आपकी यह पहली ग़ज़ल है ..लेकिन इसने झंडे गाड़ दिए ..हर अशार बेहतरीन ,,काबिले तारीफ़ इस ग़ज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई

Comment by रमेश कुमार चौहान on October 14, 2013 at 7:43pm

तुम्हारे सामने हस्ती नहीं कुछ,
मगर इज्ज़त का सौदा क्यूँ करें हम?? .............खूबसूरत भाईजी बधाई

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 14, 2013 at 5:47pm

नीलेश भाई , एक अच्छी गज़ल की बधाई ।

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on October 14, 2013 at 4:43pm

वाह बढ़िया ग़ज़ल भाई नीलेश जी !!

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