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स्वप्न विलक्षण: ( विजय निकोर )

स्वप्न  विलक्षण:   

 

  स्मृतिओं की सुखद फुहारें

   झिलमिलाती चाँदनी

   की किरणों की झालरें

   अनन्त तारिकाएँ

   सपने में ... और सपने में साक्षात

   तुम ... कब से

 

   पूनों में, अमावस में, मध्य-रात्रि के सूने में

   इस एक सपने से तुमने, मुझसे

   रखा है अविरल अटूट संबंध

   वरना स्मृति-पटल पर चन्द्र-किरण-सा

   कभी प्रकाश-दीप-सा तैरता

   यूँ लौट-लौट न आता ...

 

   मेरे अधबनेपन का बिखराव

   चेहरे पर अतीत का रुँधा हुआ उच्छवास

   इस पर भी भावों का भावों से मेल ...

   इतनी आत्मीयता ... सपने में ?

   अभाव ? कैसा, किसका अभाव ?

   तुम्हारा ?  नहीं, कभी नहीं

 

   ज़िन्दगी के तंग तहखानों से

   गुज़रती कोई रोशनी, देखता हूँ

   उद्दीप्त सपने में प्रज्ज्वलित

   कल्पना की दीप्ति

   प्रकाश-वर्षा-सी

   तुम ... दीप्तिमान रत्न

 

   उमड़ते स्नेह का मिठास आँखो में

   मनमंदिर में तुम्हारे .. स्नेह-अक्षर

   जैसे हँसते हुए फूलों के पराग-स्तर

   प्रकाश-पर्व के बाद भी हर वर्ष

   दो नयन तुम्हारे, दो नयन हमारे

   यह अनमोल दिए  मुस्कराते रहे

 

   स्मृतिओं की सुखद फुहारें

   सपने में ... सपने में तुम

   कब से ...

 

            -----

                                         -- विजय निकोर

 

 

   (मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment

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Comment by Sushil.Joshi on November 12, 2013 at 8:54pm

आहा... भावों की बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति है आपकी इस रचना में आ0 विजय जी.... शब्द संचयन भी जानदार...... वाह.... बहुत बहुत बधाई इस रचना हेतु.....

Comment by वेदिका on November 12, 2013 at 5:41pm

सुंदर शब्द चयन और उत्तम भाव से ओतप्रोत कविता|

बधाई आ0 विजय जी!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 12, 2013 at 4:30pm

 प्रकाश-पर्व के बाद भी हर वर्ष

   दो नयन तुम्हारे, दो नयन हमारे

   यह अनमोल दिए  मुस्कराते रहे..आदरणीय सर ..बेहद सुंदर रचना की इन पंक्तियों  ने मन को छू लिया ..सदर प्रणाम के साथ 

Comment by विजय मिश्र on November 11, 2013 at 6:23pm
आज मैं निःसंकोच कहता हूँ ...... कि ...... आपकी रचनाओं में अमृताजी के अक्स साफ उभरकर आते हैं . शब्दों में ताश के पत्ते की तरह भाव को बिखेरना फिर अचानक समेटना ...... सबकुछ तो वैसा ही है , बहुत खूब विजयजी .मैं खुद भी उनके इस कमाल का कायल रहा हूँ . ईश्वर इसे और जीवन्तता दे . एक महान का अनुसरण है ,उसकी अभिव्यंजनाओं का छाप है ,मुझे अतीत में आपसे पूछे मेरे एक प्रश्न का उत्तर आपकी इस कविता ने दे दिया.
Comment by Meena Pathak on November 11, 2013 at 3:49pm

उमड़ते स्नेह का मिठास आँखो में

   मनमंदिर में तुम्हारे .. स्नेह-अक्षर

   जैसे हँसते हुए फूलों के पराग-स्तर

   प्रकाश-पर्व के बाद भी हर वर्ष

   दो नयन तुम्हारे, दो नयन हमारे

   यह अनमोल दिए  मुस्कराते रहे

 

   स्मृतिओं की सुखद फुहारें

   सपने में ... सपने में तुम

   कब से ........................................बहुत सुन्दर भावों से ओत प्रोत रचना | बहुत बहुत बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी | सादर 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 11, 2013 at 9:33am

स्मृति पटल पर उभरे स्वप्निल अहसास को अनुभव करते हुए सुन्दर आत्मीय भाव उकेरने में सफल रहे है आद श्री विजय निकोरे जी -

 उमड़ते स्नेह का मिठास आँखो में

   मनमंदिर में तुम्हारे .. स्नेह-अक्षर

   जैसे हँसते हुए फूलों के पराग-स्तर

   प्रकाश-पर्व के बाद भी हर वर्ष

   दो नयन तुम्हारे, दो नयन हमारे

   यह अनमोल दिए  मुस्कराते रहे

   स्मृतिओं की सुखद फुहारें

   सपने में ... सपने में तुम ---इसे पढ़कर मेरा मन भी मदुर स्म्रतियों में खो गया | बहुत बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 11, 2013 at 12:15am

मेरे अधबनेपन का बिखराव

   चेहरे पर अतीत का रुँधा हुआ उच्छवास

   इस पर भी भावों का भावों से मेल ...

   इतनी आत्मीयता ... सपने में ?

   अभाव ? कैसा, किसका अभाव ?

   तुम्हारा ?  नहीं, कभी नहीं

बेहद गहन विश्वास से शब्दों का चयन,उतने ही सुंदर भाव, बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी

Comment by ram shiromani pathak on November 10, 2013 at 10:26pm

 ज़िन्दगी के तंग तहखानों से

   गुज़रती कोई रोशनी, देखता हूँ

   उद्दीप्त सपने में प्रज्ज्वलित

   कल्पना की दीप्ति

   प्रकाश-वर्षा-सी

   तुम ... दीप्तिमान रत्न//// बहुत ही  सुन्दर शब्द  संयोजन 

बहुत ही  सुन्दर  प्रस्तुति आदरणीय विजय  निकोर  जी,बहुत बहुत बधाई। …सादर 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 10, 2013 at 9:36pm

 प्रकाश-पर्व के बाद भी हर वर्ष

   दो नयन तुम्हारे, दो नयन हमारे

   यह अनमोल दिए  मुस्कराते रहे

 

   स्मृतिओं की सुखद फुहारें

   सपने में ... सपने में तुम

   कब से ...

 वाह वाह बहुत सुन्दर प्रस्तुति अंत ने तो मन मोह लिया |बहुत बहुत बधाई आपको 

Comment by annapurna bajpai on November 10, 2013 at 8:57pm

आदरणीय विजय जी क्या ही सुंदर रचना हुई है , बहुत बधाई आपको । आपकी लेखनी को नमन । 

कृपया ध्यान दे...

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