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ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
.
झील के पानी में गिर के चाँद मैला हो गया।
स्वाद मीठी नींद का कड़वा-कसैला हो गया॥
.
दो घड़ी भी चैन से मैं साँस ले पाता नहीं,
यूँ तुम्हारी याद का मौसम विषैला हो गया।
.
सभ्यता के औपचारिक आवरण से ऊब कर,
आदमी का आचरण फिर से बनैला हो गया।
.
आँख में मोती नहीं बस वासना की धूल है,
प्यार देखो किस क़दर मैला-कुचैला हो गया।
.
हर किसी को सादगी के नाम से नफ़रत हुई,
कल जिसे कहते थे मजनूँ,आज लैला हो गया।
.
खेत-खलिहानों की लज़्ज़त कंकरीटों में कहाँ,
हर नई पीढ़ी का बचपन बंद थैला हो गया॥
.
-मौलिक एवं अप्रकाशित।
-21.01.2014

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Comment by Ravi Prakash on February 3, 2014 at 10:32pm
धन्यवाद आ॰ सारथी जी।
Comment by Saarthi Baidyanath on February 1, 2014 at 10:44am

जिंदाबाद ग़ज़ल हुई है ! 

आँख में मोती नहीं बस वासना की धूल है,
प्यार देखो किस क़दर मैला-कुचैला हो गया।....अच्छे अच्छे उपमान का प्रयोग हुआ है ! मजा आ गया !

Comment by Ravi Prakash on February 1, 2014 at 10:32am
धन्यवाद आदरणीय।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 1, 2014 at 2:27am

भइया मन से कही ग़ज़ल को मन से पढा हमने. और खुश हुए. छोटी-छोटी बातों की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई.. .

Comment by Ravi Prakash on January 27, 2014 at 10:29pm
धन्यवाद जी !!!
Comment by बृजेश नीरज on January 27, 2014 at 10:24pm

वाह! बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने! बहुत-बहुत बधाई!

Comment by Ravi Prakash on January 27, 2014 at 11:02am
अरुण जी, सराहना तथा उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
Comment by अरुन 'अनन्त' on January 27, 2014 at 10:41am

वाह रवि प्रकाश भाई हमेशा की तरह एक और धारदार शानदार ग़ज़ल आई है आपकी सभी अशआर बहुत ही सुन्दरता से गढ़े गए हैं इतना ही कहूँगा .आपकी ग़ज़ल बेहद रास आई, रवि प्रकाश भाई. ढेरों दिली दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by Ravi Prakash on January 26, 2014 at 11:44pm
कोटि कोटि धन्यवाद आ॰ महिमा जी। स्नेह बनाए रखें।
Comment by Ravi Prakash on January 26, 2014 at 11:41pm
धन्यवाद आ॰ बसंत नेमा जी।

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