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"भई वाह, तुम्हारे हरे भरे केक्टस देख कर तो मज़ा ही आ गया."
"बहुत बहुत शुक्रिया."
"लेकिन पिछले महीने तक तो ये मुरझाए और बेजान से लग रहे थे"
"बेजान क्या, बस मरने ही वाले थे."
"तो क्या जादू कर दिया इन पर ?"
"घर के पिछवाड़े जो बड़ा सा पेड़ था वो पूरी धूप रोक लेता था,  उसे कटवाकर दफा किया, तब कहीं जाकर बेचारे केक्टस हरे हुए."

(मौलिक और अप्रकाशित)

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 11:20am

रचना के मर्म तक पहुँचने के लिए दिल से शुक्रिया भाई  लक्ष्मण धामी जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 11:20am

आपने बिलकुल सच कहा भाई अरुण श्रीबवास्तव जी, अपने हाथों अपनों बर्बादी की सटीक मिसाल दी है. रचना को मान देने के लिए हार्दिक आभार।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 21, 2014 at 12:16am

ऐसा करना हमेशा से ही इन्सान की फितरत है, अपनी खोखली वाहवाही के लिए वास्तविकता को गवां देता है

बहुत सशक्त लघुकथा आदरणीय योगराज जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by gumnaam pithoragarhi on February 20, 2014 at 9:54pm

वाह सर जी खूब एक बार मैने कहा ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,


खिज़ा से लोग इस कदर घबराने लगे
अपने आंगन में केक्टस उगाने लगे

 

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 20, 2014 at 8:25pm
प्रतीक पूरी तरह अपनी बात कह रहे हैं। एक बेहद सफल लघुकथा। बधाई स्वीकार करें आदरणीय योगराज जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 20, 2014 at 6:04pm

आदरणीय योगराज भाई , प्रत्यक्ष दिखने वाले छोटे फायदे के लिये भविष्य के बड़े नुकसान से आँखे बन्द कर लेने की प्रवृत्ति हमेशा बड़े नुकसान का कारण बनती है ॥ सार्थक लघुकथा के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by Sarita Bhatia on February 20, 2014 at 5:43pm

गूढ़ ज्ञान के अर्थ लिए लघुकथा पर जीवन का सार 

Comment by annapurna bajpai on February 20, 2014 at 4:21pm

आदरणीय प्रभाकर जी गूढ़ अर्थों को समेटे हुए एक सशक्त लघु कथा , बहुत बधाई आपको । 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 20, 2014 at 1:15pm

आदरणीय भाई योगराज जी ,

यह लघुकथा है या हमारा जीवन चरित्र ?

इस लघुकथा बनाम जीवनचरित्र के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई .

Comment by Arun Sri on February 20, 2014 at 12:53pm

जैसे सूरज बेचकर मोमबत्तियाँ खरीद ली हों ! भीतर तक उतरती हुई लघुकथा !

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