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वह दोस्तों के साथ मूवी देखकर और लंच करके लौटी थीं | घर में घुसते ही माँ ने कहा:

"अरे शर्मा अंकल आए हैं, ड्राइंग रूम में जा के नमस्ते तो कर ले |"
"ठीक है माँ, मिल लेती हूँ जा के , जरा दुपट्टा तो डाल लूँ |"

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by शिज्जु "शकूर" on July 8, 2014 at 8:22pm

आदरणीय विनय सिंह जी खरी खरी कह दी आपने बहुत बढ़िया सादर बधाई स्वीकार करें

Comment by विनय कुमार on July 8, 2014 at 12:34pm

आभार डॉ विजय , डॉ गोपाल एवम राजेश कुमारीजी , मैं जो कहना चाहता था उसमे सफल हुआ | प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 8, 2014 at 11:49am

बहुत कम शब्दों  में आपकी इस लघु कथा ने बहुत कुछ कह दिया ...जो लड़की अपने दोस्तों के साथ बाहर मूवी देखने में घूमने में सहजता महसूस करती है वही अपने घर में अंकल के सम्मुख बिना दुपट्टे जाने में असहज क्यूँ हो जाती है स्पष्ट है ....तथा  कथित अपनों के सामने ही असुरक्षा की भावना ......(क्यूँ ???विचारणीय विषय )

बहुत बहुत बधाई आपको विनय जी  

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 8, 2014 at 11:37am

विनय जी

बहुत सुन्दर i सोचने को बाध्य करता है i

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 8, 2014 at 10:16am
जीवन की सच्चाइयाँ बड़ी स्वभाविक होती हैं और जो स्वाभाविक होता है वाही अच्छी कहानी होती है.
बहुत कुछ बताती इस कहानी के लिए बधाई आ O विनय जी.

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