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है भुजंगो से भरा जग मानता हूँ - (गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122

************************
जिंदगी  का  नाम चलना, चल मुसाफिर
जैसे नदिया चल रही अविरल मुसाफिर /1
***
दे  न  पायें  शूल  पथ  के  अश्रु  तुझको
जब है चलना, मुस्कुराकर चल मुसाफिर /2
**
फिक्र मत कर खोज लेंगे पाँव खुद ही
हर कठिन होते सफर का हल मुसाफिर /3
**
मानता  हूँ  आचरण  हो  यूँ  सरल पर
राह में मुश्किल खड़ी तो, छल मुसाफिर /4
**
रात  का  आँचल  जो फैला है गगन तक
इस तमस में दीप बनकर जल मुसाफिर /5
**
है  अकेलापन अभी तो दुख किसे है
साथ  राहों में मिलेगा कल मुसाफिर /6
**
झूठ  का  माना यहाँ पर व्यूह टेढ़ा
साथ तेरे सत्य का हो बल मुसाफिर /7
**
है  भुजंगो  से  भरा जग मानता हूँ
पर स्वयं को तू बना संदल मुसाफिर /8
**
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’


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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on September 28, 2014 at 10:50pm
" झूठ का माना यहाँ पर व्यूह टेढ़ा
साथ तेरे सत्य का हो बल मुसाफिर "
बहुत सुन्दर ग़ज़ल। बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 28, 2014 at 7:07pm

वाह्ह्ह्हह्ह्ह बहुत शानदार बेमिसाल ग़ज़ल लिखी है लक्ष्मण धामी भैया,

झूठ  का  माना यहाँ पर व्यूह टेढ़ा
साथ तेरे सत्य का हो बल मुसाफिर /7-----शानदार 
**
है  भुजंगो  से  भरा जग मानता हूँ
पर स्वयं को तू बना संदल मुसाफिर /8-----ग़ज़ब 

ढेरों दाद कबूलें इस शानदार ग़ज़ल पर |
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