जैसे तुमने
तिनका तिनका जोड़ कर
धीरे-धीरे, बनाया अपना घोंसला
वैसे ही
तुमको देख-देख कर
बढ़ता रहा, मेरा भी हौसला
तुम एक- एक दाना चुग कर लायीं
अपने बच्चों को भोजन कराया
मैंने भी, वेसे ही खेतों में फसल लगायीं
दिन रात श्रम कर अन्न उगाया
धीरे धीरे रेत,बजरी ,सीमेंट ले आया
एक- एक ईंट जोड़कर
अपने सपनों का महल बनाया
जिस तरह तुमने अपने बच्चों को
उनके पैरों पर खड़ा किया
उड़ना सिखाया , उड़ा दिया, विदा किया
मैंने भी अपनी बिटिया को
पढ़ा –लिखा कर बड़ा किया
तुम्हारी प्रेरणा दे ,उसको ससुराल, विदा किया
अब अपने घर में, मैंने रख लिया है
वो खाली पड़ा तुम्हारा घोंसला
जिसे देख-देख कर
रोज बढाता रहता हूँ
अपने जीवन जीने का हौसला !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आपका हार्दिक धन्यवाद नीरज मिश्र जी !
आदरणीया सुश्री राजेश कुमारी जी आपने रचना पर ध्यान दिया और आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया पाकर में कृतार्थ हुआ ,आप जैसे विद्वानों के प्रोत्साहन से मनोबल बढ़ जाता है ,आपका हार्दिक आभार !!
आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया एवं प्रोत्साहन के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय श्री गणेश जी "बागी" जी ,आशा है भविष्य मे भी आपका मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन मिलता रहेगा !सादर
बहुत ही प्यारी रचना ...यही है जीवन हम लोगों का बस खाली घोंसला रह जाता है और बीते दिनों की याद में जीवन गुजर जाता है ,टूटते हुए जीवन को चाहे एक चिड़िया का घोंसला ही जीने का होंसला दे. बहुत बहुत बधाई इस भावपूर्ण अभिव्यक्ति पर
वाह आदरणीय हरी प्रकाश जी, सुन्दर अभिव्यक्ति, रचना पसंद आयी, बधाई स्वीकार करें।
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय योगराज प्रभाकर जी।
बहुत खूब भाई हरिप्रकाश दुबे जी।
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