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ख़ामोश जुबां, ख़ामोश नज़र ....

ख़ामोश जुबां, ख़ामोश नज़र ....

ख़ामोश जुबां, ख़ामोश नज़र
ख़ामोश वो सारे नज़ारे थे
ख़ामोश थी खून की चीखें सभी
ख़ामोश वो अश्कों के धारे थे
ख़ामोश जुबां, ख़ामोश नज़र
ख़ामोश वो सारे नज़ारे थे …….

खूनी चेहरों के मंजर ने
हर धर्म का फर्क मिटा डाला
क्या अपना और बेगाना क्या
हर दुःख को अपना बना डाला
हर चेहरे पे इक दहशत थी
और सपनें सहमे सारे थे
ख़ामोश जुबां, ख़ामोश नज़र
ख़ामोश वो सारे नज़ारे थे ….

बिखरे चूडी के टुकडों का
बंदूक क्या दर्द को समझेगी
जो गोली खून की प्यासी हो
वो सिन्दूर का मर्म न समझेगी
प्रतिशोध की ज्वाला थी दिल में
और आंखों में अंगारे थे
ख़ामोश जुबां, ख़ामोश नज़र
ख़ामोश वो सारे नज़ारे थे ….

क्योँ मानव दानव बन बैठा
और कत्ल को धर्म समझ बैठा
अंजाम-ऐ-मौत से क्योँ अपने
जीवन का श्रृंगार वो कर बैठा
ऐ कातिल झुक के देख जरा
कुछ इनमें चेहरे तुम्हारे थे
ख़ामोश जुबां, ख़ामोश नज़र
ख़ामोश वो सारे नज़ारे थे, ख़ामोश वो सारे नज़ारे थे…………
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by gumnaam pithoragarhi on December 19, 2014 at 2:56pm

वाह सर बेहद भावुक रचना ,,,,, बहुत खूब

बिखरे चूडी के टुकडों का
बंदूक क्या दर्द को समझेगी
जो गोली खून की प्यासी हो
वो सिन्दूर का मर्म न समझेगी

Comment by Shyam Narain Verma on December 19, 2014 at 12:30pm

मार्मिक व लाजवाब प्रस्तुति के लिये बहुत बहुत बधाई स्वीकारेँ 

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