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संतुष्टि कहाँ है...? (अतुकांत)

धीमी-धीमी सी

हवाओं में

दीपों की टिमटिमाती लौ

दे जाती है

अंतर को भी रोशनी

बे-समय आँधियों ने

कब किया है, रोशन

बस! बुझा दिया

या फूंक दिए है जीवन

उन्ही दीपों से.

अथाह तेज बारिशों ने भी

बहा दिए हैं, जीवन

नदियों के मटमैले

जल से

प्यासा, प्यासा ही रहा

वैसे ही, जैसे

वैशाख-ज्येष्ठ की धूप में

बैठा हो

शुष्क किनारों पर

जीवन को तो

उतनी ही हवा

मिलती रहे

जब तक अंदर

ली हुई..सांसें

बाहर न निकल आयें

प्यासे को भी तो

मिली है, तृप्ति

कल-कल करती

नदियों से

न अल्प

और न ही अधिक

फिर क्यों..?

असंतुष्ट है

समानता ही जीवन है, तो

संतुष्टि कहाँ  है...?

 

         

         जितेन्द्र पस्टारिया

      (मौलिक व् अप्रकाशित)

 

 

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Comment by गिरिराज भंडारी on February 7, 2015 at 12:02pm

न अल्प

और न ही अधिक

फिर क्यों..?

असंतुष्ट है

समानता ही जीवन है --------बहुत अच्छी बात कही भाई जितेन्द्र जी , हार्दिक बधाइयाँ । संतुष्टता को संतुष्टि करना अच्छा लगेगा ।

Comment by khursheed khairadi on February 7, 2015 at 11:24am

जीवन को तो

उतनी ही हवा

मिलती रहे

जब तक अंदर

ली हुई..सांसें

बाहर न निकल आयें

आदरणीय जितेंदर जी ,बहुत गूढ़ भाव अंतर्निहित है |हार्दिक बधाई |सादर अभिनन्दन |

Comment by Shyam Narain Verma on February 7, 2015 at 10:13am
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..

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