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नया बना भवन अपने रूप और बनावट पर मुग्ध हो रहा था | तभी अंदर से ईंट ने आवाज़ दी " क्यों इतने आत्ममुग्ध दिख रहे हो , रूपवान तो हम भी हैं "|
" हुँह , तुम्हारा रूप किसे दिखता है , सब तो मुझे ही देखते हैं ", भवन ने इतराते हुए कहा |
छड़ ने , कंक्रीट ने भी यही बात दुहरायी , भवन ने वैसे ही जवाब दिया |
ईंट बोली गर मैं हट जाऊं ? कंक्रीट बोला मैं पकड़ ढीली कर दूँ ? छड ने कहा मैं टेढ़ी हो लटक जाऊं?
भवन थोड़ा सोच में पड़ गया |
" तुम इसलिए खूबसूरत दिख रहे हो क्योंकि तुममे हमने अपनी खूबसूरती को आत्मसात कर दिया है ", यह सुनकर भवन को उसके अल्पज्ञान का भान हो गया |
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on March 23, 2015 at 5:51pm

बहुत बहुत आभार आदरणीया निधि अग्रवाल जी..

Comment by Nidhi Agrawal on March 23, 2015 at 11:05am

बहुत सुन्दर कहानी है .. सुन्दर कसाव के साथ सार्थक सन्देश दे रही है आपकी रचना 

Comment by विनय कुमार on March 23, 2015 at 2:58am

बहुत बहुत आभार आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी | सबको बाहर का ही दिखता है, पीछे कौन देखना चाहता है |

Comment by Hari Prakash Dubey on March 23, 2015 at 12:15am

बात सही है , हर सक्षम, सुन्दर चीज  के पीछे  कितने लोगों / चीजों  का योगदान होता है , आत्म  मुग्धता मैं ये बातें आदमी भूल जाता  है ,बहुत ही सुन्दर ,आदरणीय विनय जी ,बधाई आपको इस रचना पर ! सादर 

Comment by विनय कुमार on March 22, 2015 at 11:59pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय  जितेन्द्र पस्टारिया जी..

Comment by विनय कुमार on March 22, 2015 at 11:58pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय गणेश जी बागी जी..

Comment by विनय कुमार on March 22, 2015 at 11:57pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ विजय शंकर जी..

Comment by विनय कुमार on March 22, 2015 at 11:56pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय सोमेश कुमार जी..

Comment by विनय कुमार on March 22, 2015 at 11:55pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , आपकी टिप्पणी हौसला बढाती है..

Comment by विनय कुमार on March 22, 2015 at 11:54pm

बहुत बहुत आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी , आपकी टिप्पणी हौसला बढाती है..

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