2122 2122 2122 212
 
 है कोई क्या इस जहाँ में जो कभी हारा नहीं
"सिर्फ़ पाया हो यहाँ पर और कुछ खोया नहीं"
 
 पत्थरों के बीच रह के मै भी पत्थर की तरह
 दर्द की बस्ती में रह कर, देखिये रोया नहीं
 
 ख़्वाब की बातें कहूँ क्या, नींद जब दुश्मन हुई
 माँ का साया जब से रूठा , तब से मैं सोया नहीं
 
 बादलों में खेमा बन्दी भी हुई क्या ? आज कल
 क्यों मेरे घर से गुज़रते वक़्त वो बरसा नहीं
 
 मरहले के और पहले थक गया था काफिला
 आबला पा था मुसाफिर वो मगर बैठा नहीं
 
 शक्लो सूरत मै मिला के देख कर , सोचा यही
 आदमी लगता है वो पर आदमी जैसा नहीं
 
 उनके टेढ़े प्रश्न का उत्तर तो रखता हूँ मगर
 हर्फ मेरे खार से हैं , इसलिये कहता नहीं
 ******************************************
 मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
| बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय | 
// शक्लो सूरत मै मिला के देख कर , सोचा यही
आदमी लगता है वो पर आदमी जैसा नहीं// । बहुत खूब पंक्तियाँ हैं , बधाई क़ुबूल करें आदरणीय गिरिराज भंडारी जी.
आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफ्ज़ाई के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय सुशील भाई , गज़ल के भावों के अनुमोदन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ । उसी भाव में आपकी कुछ लाइनों के लिये आपका आभार ।
पत्थरों के बीच रह के मै भी पत्थर की तरह
दर्द की बस्ती में रह कर, देखिये रोया नहीं....लाजबाब 
हर शेर उम्दा ...आज तो आपकी ग़ज़ल सीधे दिल में उतर गयी ..क्या कमाल का चिंतन किया है आपने .ढेर सारी बधाई स्वीकार करें आदरनीय भाईसाब
बहुत उम्दा गजल , बधाई हो .
ख़्वाब की बातें कहूँ क्या, नींद जब दुश्मन हुई
माँ का साया जब से रूठा , तब से मैं सोया नहीं
माशाल्लाह क्या बात कह गए आदरणीय … गज़ब की अभिव्यक्ति दी है आपने इन मिसरों में … दो लाइनें आपके हुज़ूर में पेश करने की इज़ाज़त चाहूंगा :
आँखों ही आँखों में शब् गुज़र जाती है 
तारीक में भी मुझे  माँ  नज़र आती है
किसने कहा आसमां में होती है जन्नत 
होती है जहां माँ, जन्नत  चली आती है
जाती ही नहीं गंध  मिट्टी  की हाथों से 
माँ तेरी डांट  मुझे  बहुत  याद  आती है
रोज़ पैरहन बदलता हूँ आईने के सामने 
टूटा बटन लगाने अब माँ नहीं आती है
ज़माने के थपेड़ों ने बहुत रुलाया है मुझे 
क्यों चुप कराने मुझे माँ तू नहीं आती है
आदरणीय जी ये त्वरित भाव है इसे बहर से न तोलें … बस महसूस करें … बहरहाल आपकी इस शानदार प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
बहुत शुक्रिया , आदरणीय समर भाई , गलतियाँ सुधार लूँगा , आपका बहुत बहुत आभार सराहना के लिये ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
    © 2025               Created by Admin.             
    Powered by
    
    
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online