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वास्ता बीच अब कुछ रहा भी नहीं (फिल बदीह ग़ज़ल(राज)

कुछ कहा भी नहीं कुछ सुना भी नहीं

 वास्ता बीच अब कुछ रहा भी नहीं

 

वक्त मेरा समझिये हुआ है फ़िजूल,

प्यार उनकी नज़र में दिखा भी नहीं

 

कौन कहता यहाँ लोग मासूम हैं,

बात करते नहीं कायदा भी नहीं

 

है पड़ोसी मगर हाल तो देखिये

,बोलता भी नहीं जानता भी नहीं

 

फ़लसफ़े जिन्दगी के अजीबो गरीब,

अब कहो क्या लिखें कुछ नया भी नहीं

 

मुफ़लिसी से हुआ बेअसर ये सबू ,

जाम पर जाम पीकर नशा भी नहीं

 

  तीरगी में जला होंसलों का  दिया

 मन मुताबिक़ भले वो हवा भी नहीं.

'राज', खुल कर करो प्यार संसार ये

, कुछ भला भी नहीं तो बुरा भी नहीं

------------------राजेश कुमारी 'राज' 

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Comment by rajesh kumari on June 22, 2015 at 12:38pm

आ० डॉ ० गोपाल भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से आभार आपका. 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 22, 2015 at 12:04pm

आ० दीदी

बहुत बढ़िया लिखा आपने . वाह

फ़लसफ़े जिन्दगी के अजीबो गरीब,

अब कहो क्या लिखें कुछ नया भी नहीं

कृपया ध्यान दे...

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