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पराश्रित तो नहीं (लघुकथा )

"मम्मी स्कूल की नौकरी , बिट्टू को पढ़ाने के बाद रात का खाना बनाना मेरे बस की बात नहीं हैं।"
"लेकिन बहू घर का अन्य काम तो इस उम्र में भी मैं ही करती हूँ तो क्या तुम एक समय का खाना भी नहीं बना सकती ?"
"नहीं बना सकती क्योकि मैं नौकरी करती हूँ , आपकी तरह घर में नहीं बैठी रहती "
ससुरजी हस्तक्षेप करते हुए -
"बस बहुत हो गया बहू , आज से तुम अपनी गृहस्थी देखो और हम अपनी जिम्मेदारी खुद उठा लेंगे और फिर हम पराश्रित भी तो नहीं हैं ।"

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 22, 2015 at 4:17pm

कम्फर्ट लेवल  की बात है  जो  छरित हो रहा है .

Comment by Omprakash Kshatriya on August 22, 2015 at 8:32am
अच्छा सबक सिखाती सुन्दर लघुकथा आप की ।
Comment by TEJ VEER SINGH on August 21, 2015 at 1:20pm

हार्दिक बधाई आदरणीय अर्चना त्रिपाठी जी, बहुत सुन्दर लघुकथा बनी है!

Comment by pratibha pande on August 21, 2015 at 11:24am
बच्चों और बुजुर्गों दोनों को एक दूसरे का नज़रियाँ समझने की ज़रुरत है , बधाई आपको रचना के लिए आ० अर्चना जी
Comment by Mamta on August 21, 2015 at 10:43am
अच्छा सबक! काश कुछ पहले किया होता तो नौबत ही न आती इतना कुछ सहने की।चलो देर आए दुरुस्त आए! अच्छी लघुकथा अर्चना जी।बधाई!
सादर ममता

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