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ग़ज़ल-"नूर-ये ताबीज़ मुझ को फला देर से.

१२२/१२२/१२२/१२ 
.
कोई राज़ मुझ पर खुला देर से,
वो आँसू वहीँ था,, बहा देर से.
.

चिता की हुई राख़ ठंडी मगर,
सुलगता हुआ दिल बुझा देर से.
.

मैं दुनिया से लड़ने को तैयार था,
मगर ..ख़त तुम्हारा मिला देर से.  
.

तेरा नाम धडकन पे गुदवा लिया,
ये ताबीज़ मुझ को फला देर से.
.

हमारी सिफ़ारिश फ़रिश्तों ने की,
मगर आसमां ही झुका देर से.
.

अजब सी नमी लिपटी हर्फ़ों से थी,
वो ख़त तो जला पर जला देर से.
.

कई खेत प्यासे तड़पते रहे,
मिला बादलों को पता देर से.
.

भँवर, कश्तियाँ लीलता ही गया,
मगर वाँ भी पहुँचा.. ख़ुदा देर से. 
.

तू इंसान बेशक़ है आलातरीन,
तू पहचाना लेकिन गया देर से.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on April 26, 2016 at 9:08pm

जनाब नीलेश नूर साहिब ,  अच्छी ग़ज़ल कही है आपने ,मुबारकबाद शेर दर शेर क़ुबूल फरमाएं। ....... शेर नंबर 4 के सानी मिसरे में एक शब्द इस्तेमाल हुआ है ,वह तावीज़ है ताबीज़ नहीं ,देख लीजिएगा


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 26, 2016 at 8:39pm

चिता की हुई राख़ ठंडी मगर, 
सुलगता हुआ दिल बुझा देर से.
.

मैं दुनिया से लड़ने को तैयार था,
मगर ..ख़त तुम्हारा मिला देर से.  ---बहुत मर्मस्पर्शी शेर हुए 

पूरी ग़ज़ल ही दिल छू  लेने वाली हुई नीलेश भैय्या जितनी दाद दो कम ही होगी 

Comment by narendrasinh chauhan on April 26, 2016 at 1:48pm

खूब सूरत ग़ज़ल के लिए बधाई कुबूल करे

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