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तुम जो चाहो तो ये गिर्दाब, किनारा लिख दो
डूब भी जाये कोई , पार उतारा लिख दो
कैसे उस चाँद को धरती पे उतारा लिख दो
कैसे आँगन में हुआ खूब नज़ारा लिख दो
खटखटाने से कोई दर न खुले, तो दर पर
बारहा मैने तेरा नाम पुकारा लिख दो
जंग अपनो से भला कैसे कोई कर लेता
ख़ुद को जीता, तो कहीं मुझको ही हारा लिख दो
हो यक़ीं या कि न हो तुम तो लिखो सच अपना
दश्ते तारीक में जुगनू था सहारा लिख दो
कौन आयेगा यहाँ अश्क़ तुम्हारा पढ़ने
हँसते गाते हुये ही वक़्त गुज़ारा लिख दो
रेत पर बे वफा लिक्खो नहीं, मिट जायेगा
संग ए दिल में ही कहीं और दुबारा लिख दो
फिर न कहना कि बहुत तल्ख़ लगीं थीं बातें
मेरी फित्रत में तुम्हें क्या है गवारा लिख दो
कोई बदलेगा नहीं छोड़ो अदालत तुम भी
या तो मुंसिफ ने है कितनों को सुधारा लिख दो
यार तुम भी तो पढ़ो मेरी ग़ज़ल के मिसरे
कौन कहता है इसे पाँच सितारा लिख दो
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
वाह बहुत उम्दा ग़ज़ल आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बधाई .....:)
ख़ूबसूरत अश’आर हुए हैं आदरणीय गिरिराज जी, दाद कुबूल कीजिए
यह ग़ज़ल तो आपका पाँच सितारे लायक ही है | हमने दे दिया *****
कई बार पढ़ा और गुनगुनाया, बहुत अच्छा लगा . हर शेर में भाव बहुत सुन्दर है | हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज जी
खटखटाने से कोई दर न खुले, तो दर पर
बारहा मैने तेरा नाम पुकारा लिख दो
बेहद शानदार गजल आदरनीय !! क्या ख्यालात हैं आपने !! बहुत खूब !!
यार तुम भी तो पढ़ो मेरी ग़ज़ल के मिसरे
कौन कहता है इसे पाँच सितारा लिख दो
क्या बात है आदरणीय ! बहुत खूब ... बहुत-बहुत खूब !
फिर न कहना कि बहुत तल्ख़ लगीं थीं बातें
मेरी फित्रत में तुम्हें क्या है गवारा लिख दो
कोई बदलेगा नहीं छोड़ो अदालत तुम भी
या तो मुंसिफ ने है कितनों को सुधारा लिख दो....बहुत दमदार ,सीधे दिल पर उतरती इस ग़ज़ल के लिए बधाई प्रेषित है आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ...सादर
अभी तक पाँच दफ़े पढ़ चुके हैं. बार-बार लिखना चाहते हैं. फिर रुक जाते हैं. दूसरी रचनाओं से घूम आते हैं. फिर पढ़ते हैं. ये चल रहा है अभी.
आदरणीया अमिता जी , आपका हृदय से आभार ।
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