For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

हाल-ए-दिल पूछने चले आये (ग़ज़ल)

2122 1212 22

हाल-ए-दिल पूछने चले आये।
जाइए, जाइए.....बड़े आये।

उनके नज़दीक हम गये जितने,
दरमियाँ उतने फ़ासले आये।

आपके शह्र, आपके दर पर,
आपका नाम पूछते....आये।

राह-ए-मंज़िल में करने को गुमराह,
जाने कितने ही रास्ते आये।

हुए रावण के अनगिनत मुखड़े,
राम-राज अब तो कोई ले आये।

ज़ीस्त का मस्अला नहीं सुलझा,
जाने कितने चले गए, आये।

ढूँढे मिलता नहीं हमारा दिल,
हाथ किसके न जाने दे आये।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 1100

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 2, 2016 at 1:25am

जयनित भाई, मैं तो मतले से उभरे आते कमाल पर ही मुग्ध हूँ. क्या महीन से महीन होते जा रहे हैं भाई आजकल ! कमाल.. कमाल !

मैं तो आजकल आपसे बड़े गुस्से में चल रहा था. कि आप रचनाओं पर अभ्यास आदि छोड़ कर लोगों को ’रचनाकार’ बनाने की हवाबाज़ी करते हुए हवाई गोते लगाने लगे हैं. .. :-))
लेकिन आपके इस ’जाइये, जाइये..’ ने मेरे भ्रम के पर्दे को तार-तार कर दिया है ! .. ये उमर भइया और ये कमाल ! वाह वाह !.. चश्मेबद्दूर !
 
जयनित भाई, अभी आपके इस मतले से पार पाऊँ तो ओबीओ के मंच पर आजकल आम होती जा रही बहसों के नये ढंग पर अपनी कुछ बातें सादर निवेदन करूँ. इसमें कोई शक नहीं कि इस क्रम में मंच के वरिष्ठ सदस्यो की निर्लिप्तता या ’अच्छे’ (?) बने रहने का व्यामोह, या हम चाहे इसे जो नाम दें, अब कीमत माँगने लगी है. और इसके लिए सभी तथाकथित वरिष्ठों के साथ-साथ मैं स्वयं को भी दोषी मानता हूँ.

अभी इतना ही, इसके आगे मैं निपट लूँगा या अब निपट जाऊँगा.

सही है, मंच के अबतक के इतिहास में लम्बी-लम्बी बहसें हुई हैं, लेकिन उच्छृंखलता को कभी प्रश्रय नहीं मिला था. और ऐसा कहते हुए कई और पोस्ट और प्रतिक्रियाएँ ध्यान में हैं. 

अब चर्चा-परिचर्चा पर बात हो जाये. उस हेतु, भाषा व्याकरण सम्मत बातें, जैसा कि मैं जानता हूँ..

एक मोटा-मोटी नियम जान लें, कि, जिस क्रिया के शब्द का समापन ’या’ से होता है, उसके लिए संज्ञामूलक या वचन परिवर्तन ’ये’ और ’यी’ हुआ करता है. जैसे, आया का आये या आयी. पढ़ाया का पढ़ाये या पढ़ायी, बनाया का बनाये या बनायी. आदि
जिस क्रिया के शब्द का समापन ’आ’ से होता है, उसके लिए ’ए’ और ’ई’ हुआ करता है. जैसे, हुआ का हुए या हुई आदि.
यह आम किस्म का नियम है, सो हम सबको गाँठ बाँध लेना उचित होगा. अब, इस हिसाब से ’गया’ का परिवर्तन ’गये’ ही होगा या आवश्यकतानुसार ’गयी’ होगा. न कि ’गए’ या ’गई’. जैसा कि आपने लिख दिया है, अथवा आमतौर पर लोग घालमेल करते दिखते हैं.

 

सर्वोपरि, हिन्दी भाषा में यह घालमेल उर्दू के रास्ते से आया है. जहाँ स्वर की मात्रा अपने आप में पूर्ण वर्ण की तरह व्यवहृत होती है. उस हिसाब से ’गए’ और ’गये’ एकही ढंग से व्यवहृत होते हैं. उर्दू के अनुसार ’दे’, ’ले’, ’से’ आदि-आदि में काफ़िया ’ए’ की मात्रा इस लिए होती है कि व्यंजन के क्रमशः द, ल, स के बाद लगा मात्रा का ’वर्ण’ ’ए’ ही कॉमन हुआ करता है. हिन्दी के स्वर की मात्राओं की तरह वह व्यंजन वर्ण का अन्योन्याश्रय भाग नहीं बन जाता. 

खैर, मेरे लिए हिन्दी भाषा के अनुसार ही बना रहना उचित है.  

भाई केवल प्रसादजी दोनों भाषाओं के बीच के अंतर की इसी महीनी को न जानने के चक्कर में फँस गये प्रतीत हो रहे हैं. और उनको काफ़िया के तौर पर ’ये’ के साथ ’ए’ की मात्रा अतुकांत लग रही है. 

इन सब के बीच गुत्थी फँसती है, ’लिया’ से बने ’लिये’ और ’के लिए’ को लेकर. क्यों कि ’लिया’ का ’लिये’ तो समझ में आता है, लेकिन ’इसलिए’ या ’इसके लिए’ में कौन सा होगा ? ’ए’ या ’ये’ ?  तो उत्तर है, ’इसलिए’ या ’इसके लिए’ में ’ए’ होगा. क्योंकि यह ’लिए’ क्रिया ’लिया’ से संवर्धित न होकर एक अव्यय है. ’इसलिए’ या ’इसके लिए’ आदि को क्रमशः ’इसलिये’ या ’इसके लिये’ लिखना अशुद्ध है.

विश्वास है, इस व्याकरण सम्मत ’मोटा-मोटी’ नियम से तथ्यगत विन्दु सहज हुए होंगे.
भाई, मैं तो इतना ही जानता हूँ.

बाकी रही बातें पोस्ट पर की चर्चा-परिचर्चा की, तो यह उचित ही है कि यह मंच मत-मंतव्यों से सतत समृद्ध होता रहे.

किन्तु, भाई केवल प्रसाद जी, आजकल आप किन लोगों के बीच उठने-बैठने लगे हैं ? आपतो ऐसे न थे, भाईजी ? ’रद्दी’, या ’अफ़सोस’ आदि जैसे शब्दों का ऐसा विपुल प्रयोग ? मज़रा क्या है, भाईजी ? तथ्यगत और तर्कपूर्ण रहेंगे तो हम समरस माहौल में भी अपनी बातें कह सकते हैं. वर्ना, आधी-अधूरी जानकारी और उस पर से कथ्य में संप्रेषणीयता का परिलक्षित दोष ! भाई, बड़ा भारी उलझाव पैदा करता है ! जहाँ तक आदरणीय एहतराम साहब की बात है, तो शायद आप उनके नये-नये ’एकलव्य’ हुए हैं. लेकिन, इतना तो आप तय मानें भाईजी, कि वे भी समझाने-सिखाने में ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करते. जबकि गलत को गलत कहने में वे कोई कोताही नहीं करते. भाईजी, फिर से कहूँगा, आप तो ऐसे वाकई न थे !
शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 1, 2016 at 5:15pm

आदरनीय केवल भाई --1- लगता है आप ओ बी ओ मे नये नये आये हैं , यहाँ पर कोई भी किसी का गुरू नही है , हर कोई हर किसी से सीख भी रहा है और जितना जानता है सिखा भी रहा है । प्रयास कोई विधा विशेष मे कर रहा हो ये बात अलग है , पर गुरू की हैसियत से यहाँ किसी को भी मैने व्यवहार करते नही देखा । और गलती की संभावना हमेशा हर किसी से हर समय होती है , कोई पूर्न नही होता । आप हो गये हों तो अलग बात । मुझे आपके अफसोस पर अफसोस है ।

2-  मै अब भी कह रहा हूँ कि काफिया मे गलती मुझे नही लगती --  मै किसी और जानकार का इंतिज़ार करना चाहूँगा । क्यों कि  मैने को ये भी लिखते देखा है  , जिस पर किसी ने उँगली नही उठाई  । जैसे  गई को कुछ लोग गयी लिखते हैं ।

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 1, 2016 at 3:53pm

आ० भण्डारी भाई जी,  आप लोग तो गज़ल के गुरु हैं.....मुझे बड़ा अफसोस है..कि यह कमी आपको क्यो नहीं दिखाई दी?   काफिये में...ले, दे, ते और ड़े के साथ ए   बिलकुल नही चलता  और विस्तार से.....द+ए=दे,   ल+ए=ले,   ड़+ए= ड़े  और  ....+ए= ए  ?  यदि आप इसे ग+ए= गे  मान रहे है तो  (गए )  दोषपूर्ण काफिया है.  सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 1, 2016 at 3:46pm

आ० जयनित भाई और महेंद्र भाई जी, आप दोनों को ही प्रणाम!  आप दोनों ही एक बेहतर गज़लकार हैं. आप लोगों को इस बात से इत्तेफाक नही रखना चाहिये कि शेर अच्छा बन पड़ा है बल्कि बह्र के साथ ही साथ काफिये व रदीफ से गज़ल दुरुस्त होना चाहिये.  आप आ० एहतराम इस्लाम सर व आ० वीनस भाई  की गजलें देखे और आगे बढें...क्योकि यहां गजलकार बहुतेरे हैं. अच्छे ढूढ़्ने से मिलते हैं... मेरी बात को अन्यथा मत लेंं.  आपको बहुत आगे जाना है.  ढेरों शुभकामनाएं. सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 1, 2016 at 10:56am

आ० जयनि त कुमार जी ---जाईये  जाईये--------------   बड़े  आये  !

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 30, 2016 at 8:17pm

शानदार प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 30, 2016 at 12:56pm

आदरणीय जयनित भाई , गज़ल अच्छी हुई है , हार्दिक बधाई आपको । मेरे ख्याल से भी उस शे र मे काफिया दोष नही है । आ. केवल भाई जी से ज़िम्मे दारी पूर्ण प्रतिक्रिया की अपेक्षा  करते हैं हम सब , उनको बताना चाहिये कि काफिया दोषपूर्ण कैसे है , ताकि अगर कुछ गलती हो तो हम सब को उनके ज्ञान लाभ मिल सकें ।

Comment by Mahendra Kumar on June 30, 2016 at 12:12pm

ग़ज़ल में दोष होना अलग बात है उसकी पसन्दगी–नापसन्दगी अलग चीज। यदि आदरणीय केवल प्रसाद जी (या किसी अन्य) को वो (या कोई अन्य) शेर रद्दी लग रहा है तो होगा किन्तु मुझे वह शेर बढ़िया लगा। सादरǃ

Comment by जयनित कुमार मेहता on June 29, 2016 at 9:55pm
आदरणीय केवल प्रसाद जी, आपके विचार का स्वागत है। परंतु मैं ये नहीं समझ पा रहा हूँ कि उस शेर का काफ़िया कैसे दोषपूर्ण लगा आपको?

काफिये "ए-कार" का पालन तो इस शेर में भी हुआ है।
Comment by जयनित कुमार मेहता on June 29, 2016 at 9:52pm
आदरणीय महेंद्र कुमार जी, तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आपका।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय गिरिराज जी इस बह्र की ग़ज़लें बहुत नहीं पढ़ी हैं और लिख पाना तो दूर की कौड़ी है। बहुत ही अच्छी…"
2 hours ago
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहते हो बात रोज ही आँखें तरेर कर-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ. धामी जी ग़ज़ल अच्छी लगी और रदीफ़ तो कमल है...."
2 hours ago
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं
"वाह आ. नीलेश जी बहुत ही खूब ग़ज़ल हुई...."
3 hours ago
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"आदरणीय धामी जी सादर नमन करते हुए कहना चाहता हूँ कि रीत तो कृष्ण ने ही चलायी है। प्रेमी या तो…"
3 hours ago
बृजेश कुमार 'ब्रज' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"आदरणीय अजय जी सर्वप्रथम देर से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।  मनुष्य द्वारा निर्मित, संसार…"
3 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । हो सकता आपको लगता है मगर मैं अपने भाव…"
18 hours ago
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"अच्छे कहे जा सकते हैं, दोहे.किन्तु, पहला दोहा, अर्थ- भाव के साथ ही अन्याय कर रहा है।"
21 hours ago
Aazi Tamaam posted a blog post

तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या

२१२२ २१२२ २१२२ २१२इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्यावैसे भी इस गुफ़्तगू से ज़ख़्म भर…See More
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"परम् आदरणीय सौरभ पांडे जी सदर प्रणाम! आपका मार्गदर्शन मेरे लिए संजीवनी समान है। हार्दिक आभार।"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधमुश्किल है पहचानना, जीवन के सोपान ।मंजिल हर सोपान की, केवल है  अवसान…See More
Tuesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"ऐसी कविताओं के लिए लघु कविता की संज्ञा पहली बार सुन रहा हूँ। अलबत्ता विभिन्न नामों से ऐसी कविताएँ…"
Tuesday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

छन्न पकैया (सार छंद)

छन्न पकैया (सार छंद)-----------------------------छन्न पकैया - छन्न पकैया, तीन रंग का झंडा।लहराता अब…See More
Tuesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service