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ग़ज़ल नूर की - किसी साधू के गहरे ध्यान से हम

२१२२, १२१२, २२ (११२) +१ 
.
किसी साधू के गहरे ध्यान से हम
बैठे रहते है इत्मिनान से हम.
.
तुम हो इक टूटती हुई दीवार
एक ढहते हुए मकान से हम.
.
गर ख़ुदा को वहाँ नहीं पाया,   
लौट आयेंगे आसमान से हम.   
.
बात जो कुछ है साफ़ साफ़ कहें
ऊँचा सुनने लगे हैं कान से हम.
.
बुतकदे में जलाने को दीपक
जाग जाते हैं इक अज़ान से हम.   
.
एक एल्बम में तुम हसीं थी बहुत 
साथ में थे बड़े जवान से हम. 
.
वस्ल का पल, ये जिस्म और वो “नूर”
हट गए अपने दरमियान से हम. 
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 782

Comment

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Comment by Mohammed Arif on October 16, 2017 at 10:50am
आदरणीय निलेश जी आदाब, बहुत ही उम्दा शे'रों से सुसज्जित ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

कृपया ध्यान दे...

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