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ख़त हमारे अगर जलाता है ; ग़ज़ल नूर की

२१२२/ १२१२/ २२ (११२)
ख़त हमारे अगर जलाता है
राख दुनिया को क्यूँ दिखाता है.
.
हम को उम्मीद है तो ग़ैरों से,
कौन अपनों के काम आता है?
.
सुन रखी होगी आग जंगल की
क्यूँ शरर को हवा दिखाता है.
.
शम्स मुझ सा शराबी है शायद 
शाम ढलते ही डूब जाता है.
.
ज़र्द चेहरा है बाल बिखरे हैं
इस तरह कौन दिल लगाता है.
.
देख! दुनिया का कुछ नहीं होगा
ख्वाहमखाह इस में सर खपाता है.
.
इस पे चलता है रब्त का धंधा
कौन क्या है औ क्या कमाता है.
.
“नूर” जुगनू सही मगर फिर भी
तीरगी को तो मुँह चिढ़ाता है.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक/अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 25, 2017 at 5:44pm

शुक्रिया आ बलराम जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 25, 2017 at 5:44pm

शुक्रिया आ. अफरोज़ जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 25, 2017 at 5:44pm

शुक्रिया आ. रवि जी , देर से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ 

Comment by Balram Dhakar on December 25, 2017 at 4:27pm

आदरणीय नीलेश जी, बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है। बधाई।
सादर।

Comment by Afroz 'sahr' on November 3, 2017 at 5:50pm
आदरणीय निलेश जी इस रचना पर बधाई आपको,
"ख़्वाहमखाह" की तक्तीअ में उलझ गया हूँ कृपा कर मेंरा मार्ग दर्शन करें सादर,,,,
Comment by Ravi Shukla on November 3, 2017 at 3:06pm
आदरणीय नीलेश जी उम्दा गजल कही आपने शम्स मुझ सा शराबी है, और मक्का खासतौर से पसंद आया इसके लिए अलग से मुबारकबाद कुबूल कीजिए पूरी ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद
Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 3, 2017 at 1:40pm

शुक्रिया आ. अजय तिवारी जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 3, 2017 at 1:40pm

शुक्रिया आ. बृजेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 3, 2017 at 1:40pm

शुक्रिया आ. डॉ छोटेलाल जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 3, 2017 at 1:40pm

शुक्रिया आ. डॉ आशुतोष जी 

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