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ग़ज़ल नूर की - किसी साधू के गहरे ध्यान से हम

२१२२, १२१२, २२ (११२) +१ 
.
किसी साधू के गहरे ध्यान से हम
बैठे रहते है इत्मिनान से हम.
.
तुम हो इक टूटती हुई दीवार
एक ढहते हुए मकान से हम.
.
गर ख़ुदा को वहाँ नहीं पाया,   
लौट आयेंगे आसमान से हम.   
.
बात जो कुछ है साफ़ साफ़ कहें
ऊँचा सुनने लगे हैं कान से हम.
.
बुतकदे में जलाने को दीपक
जाग जाते हैं इक अज़ान से हम.   
.
एक एल्बम में तुम हसीं थी बहुत 
साथ में थे बड़े जवान से हम. 
.
वस्ल का पल, ये जिस्म और वो “नूर”
हट गए अपने दरमियान से हम. 
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 857

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2018 at 7:57am

आ. तस्दीक साहब, लेकिन क्या शब्द के बीच में मी को गिराकर मि पढना योग्य होगा?
मैं विचार करता हूँ पुन:
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2018 at 7:56am

धन्यवाद आ. तस्दीक अहमद साहब 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2018 at 7:55am

धन्यवाद आ. अफरोज़ जी 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on October 18, 2017 at 1:56pm
जनाब नीलेश साहिब ,उम्दा ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं । मेरे ख़याल से बह्र पर कोई असर नहीं होगा क्योंकि शब्द इत्मीनान में पढ़ने पर मी का ये गिर जाएगा ।
Comment by Afroz 'sahr' on October 18, 2017 at 12:14pm
आ. निलेश जी इस रचना पर बहुत बधाई आपको
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 18, 2017 at 11:50am

जी,
मैं सोचता हूँ 
सादर 

Comment by Samar kabeer on October 18, 2017 at 11:48am
बह्र में तो नहीं आएगा ये शब्द,मिसरा बदलना होगा ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 18, 2017 at 11:26am

शुक्रिया आ. अजय जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 18, 2017 at 11:26am

शुक्रिया आ. समर सर... आपकी इस्लाह के अनुसार इत्मीनान और थीं कर लिया है मूल प्रति में .. लेकिन एक शंका है ..इत्मीनान    इत्मिनान पढने   से  बहर पर प्रश्न तो नहीं उठेगा ?...
अन्य सुझावों पर भी विचार करता   हूँ 
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 18, 2017 at 11:23am

शुक्रिया आ. दिनेश भाई जी 

व्यस्तता के चलते देर से आने की मुआफ़ी चाहूँगा 
सादर 

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