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ख़त हमारे अगर जलाता है ; ग़ज़ल नूर की

२१२२/ १२१२/ २२ (११२)
ख़त हमारे अगर जलाता है
राख दुनिया को क्यूँ दिखाता है.
.
हम को उम्मीद है तो ग़ैरों से,
कौन अपनों के काम आता है?
.
सुन रखी होगी आग जंगल की
क्यूँ शरर को हवा दिखाता है.
.
शम्स मुझ सा शराबी है शायद 
शाम ढलते ही डूब जाता है.
.
ज़र्द चेहरा है बाल बिखरे हैं
इस तरह कौन दिल लगाता है.
.
देख! दुनिया का कुछ नहीं होगा
ख्वाहमखाह इस में सर खपाता है.
.
इस पे चलता है रब्त का धंधा
कौन क्या है औ क्या कमाता है.
.
“नूर” जुगनू सही मगर फिर भी
तीरगी को तो मुँह चिढ़ाता है.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक/अप्रकाशित 

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Comment by दिनेश कुमार on October 24, 2017 at 5:14pm
शम्स मुझ सा शराबी है शायद
शाम ढलते ही डूब जाता है... Kya baat hai Sir

इस पे चलता है रब्त का धंधा
कौन क्या है औ क्या कमाता है... Fully agreed Sir..

Sabhi sher umda huye hain... Dili daad ... Sir.. waah waah
Comment by Mohammed Arif on October 24, 2017 at 5:01pm
आदरणीय निलेश जी आदाब,बेहतरीन और प्रभावी ग़ज़ल की सौग़ात । मैं आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ । बाक़ी हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 24, 2017 at 2:48pm

शुक्रिया आ. समर सर ,,,
मैं विचार करता हूँ...
सादर

Comment by Samar kabeer on October 24, 2017 at 2:38pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

''नूर'जुगनू सही मगर फिर भी
तीरगी!!तुझको मुंह चिढ़ाता है'
इस शैर के सानी मिसरे में 'तुझको'को शब्द से शैर सीमित हो रहा है,अगर इसे यूँ करलें तो इसकी वुसअत बढ़ जायेगी:-
'तीरगी को तो मुंह चिढ़ाता है'
ग़ौर कीजियेगा ।

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