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ग़ज़ल नूर की-जिस्म है मिट्टी इसे पतवार कैसे मैं करूँ

२१२२ / २१२२ / २१२२ / २१२

.
जिस्म है मिट्टी इसे पतवार कैसे मैं करूँ
कागज़ी कश्ती से दरिया पार कैसे मैं करूँ.
.
ऐ अदू तेरी तरह गुफ़्तार कैसे मैं करूँ,
फूल बरसाती ज़बां को ख़ार कैसे मैं करूँ.

चाबियाँ मैंने ही दिल की सौंप दी थीं यादों को
आ धमकती हैं जो अब, इन्कार कैसे मैं करूँ.
.
रेत का घर है ये दुनिया तिफ़्ल सी उलझन मेरी  
ख़ुद बना कर ख़ुद इसे मिस्मार कैसे मैं करूँ.
.
रूह बुलबुल है जिसे ये क़ैद रास आती नहीं  
है क़फ़स सोने का पर सिंगार कैसे मैं करूँ.
.
हिज्र के असरात से पथरा गया है दिल मेरा
इस अहिल्या का मगर उद्धार कैसे मैं करूँ.
.   
एक दिन उस “नूर” से जो सामना होगा मेरा  
फ़िक्र ये है रूह को तैयार कैसे मैं करूँ.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on Friday

धन्यवाद आ. समर सर 

Comment by Samar kabeer on June 17, 2023 at 12:36pm

'ख़ुद बनाऊँ तो इसे मिस्मार कैसे मैं करूँ'

बहुत उम्द:

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 17, 2023 at 12:30pm

आ. समर सर,

5 साल लगे मिसरा सुधारने में लेकिन छपा नहीं था तो आसानी से सुधर गया ..
.
ख़ुद बनाऊँ तो इसे मिस्मार कैसे मैं करूँ.
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2018 at 8:24pm

धन्यवाद आ. बृजेश जी 
आभार 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 18, 2018 at 8:24pm

बहुत ही खूब ग़ज़ल कही है आदरणीय...

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2018 at 8:09pm

आ. समर सर,
ये मिसरा यूँ करें तो  कैसा रहे ..
.
ख़ुद बनाऊं और फिर मिस्मार कैसे मैं करूँ 
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2018 at 8:08pm

धन्यवाद आ. डॉ आशुतोष जी 
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2018 at 8:07pm

धन्यवाद आ. राम अवध जी 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 18, 2018 at 4:49pm

आदरणीय भाई निलेश जी उम्दा ग़ज़ल है इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on April 17, 2018 at 9:07pm

आदरणीय नीलेश जी बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है। हार्दिक बधाई।

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