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ग़ज़ल नूर की-2-ऐ ख़ुदा! रूतबा इबादत-गाहों का अपनी जगह

२१२२/२१२२/२१२२/२१२ 
.

ज़ाहिदो! रूतबा इबादत-गाहों का अपनी जगह
पर सुकूँ की राह में है मैकदा अपनी जगह.
.  
इश्क़ में मजबूरियों को बेवफ़ाई क्यूँ कहें   
चाहना अपनी जगह था भूलना अपनी जगह.
.
सादा-दिल होने के दुनिया में कई नुक्सान हैं
पर किसी के काम आने का मज़ा अपनी जगह.
.
आपने जब दिल लगाया ही नहीं, समझेंगे क्या?  
जीतना हो शौक़ कोई, हारना अपनी जगह.
.
इम्तिहाँ कब “नूर” का है इम्तिहाँ आँधी का है
रात भर जलता रहेगा यह दीया अपनी जगह.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by मनोज अहसास on April 21, 2018 at 3:28pm

खूबसूरत मुकम्मल गजल के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय 

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