न बैठो इतने करीब मेरे कहीं मेरा दिल मचल न जाए
अब इतनी भी दूर तो न जाओ ये जान मेरी निकल न जाए ।।
जो बर्फ़ अरमानों पर जमी है तेरी तपिश से पिघल न जाए
पिघल गई गर तो मेरी आँखों की झील भर के उछल न जाए ।।
बड़ा ही शातिर ये वक़्त है फिर नई कोई चाल चल न जाए
मिलन से पहले घड़ी विरह की मिलन का लम्हा निगल न जाए ।।
तेरी छुअन से हुई वो जुम्बिश की दिल की धड़कन बिखर गई है
न छूना मुझ को सनम दुबारा ये साँस जब तक सँभल न जाए ।।
मैं उस की खातिर हूँ सज के बैठा है शौक दिल में और एक डर भी
कि मेरे कातिल को फ़िर भी मुझ में कमी कहीं कोई खल न जाए ।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय गुरुप्रीत जी इस शानदार ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
आदरणीय गुरप्रीत जी बहुत बढि़या गजल कही है आपने इसकी लय से अनुमान लग रहा ह बह्र का बधाई स्वीकार करें । पोस्ट करने से पहले गजल के अरकान लिख दिया करें । सादर
वाह वाह.... बहुत खूब आदरणीय गुरप्रीत जी .....
थोडा लय को और साधिये......मज़ा आयेगा
सादर
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