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पाँच चुनावी दोहे (संंख्या - 2) // --सौरभ

हर चूहा चालाक है, ढूँढे  सही  जहाज
डगमग दिखा जहाज ग़र, कूद भगे बिन लाज

सजी हाट में घूमती, बटमारों की जात
माल-लूट के पूर्व ही, करती लत्तमलात

नाटक के इस मंच पर, पीटे जोकर ढोल
उलटबासियाँ चेंपता, चीखे - ’खोला पोल’

भौंरों को उम्मीद थी, खिलें उपट के फूल
पर वो आँधी चल पड़ी, धूल धूल बस धूल

दर्शक भौंचक हो रहे, देख पात्र के टेक
उठा-पटक तो मंच पर, पर्दा पीछे एक

*******
-सौरभ
*******
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 7, 2014 at 11:21pm

प्रस्तुति को अनुमोदित करने केलिए सादर धन्यवाद आदरणीया प्राचीजी.

उठा पटक तो मंच पर, पीछे पर्दा एक   न हो कर उठा पटक तो मंच पर, पर्दा पीछे एक  सही पद है. यानि, भले मंच पर अर्थात सबके सामने सभी उठा-पटक तो करते दीखते हों, पर्दे के पीछे विचारों से सभी एक ही हैं.
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 7, 2014 at 8:52pm

बहुत सामयिक मजेदार दोहावली प्रस्तुत की है आ० सौरभ जी 

कहीं चूहे जहाज से भाग रहे हैं, कहीं जोकर पोल खोल रहे हैं, और आख़िरी वाले का तो क्या कहना...बिलकुल सही कहा "उठा पटक तो मंच पर, पीछे पर्दा एक"

इस सुन्दर इंगितों के माध्यम से यथा स्थिति दर्शाती दोहावली के लिए हार्दिक बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 3, 2014 at 3:39am

प्रस्तुति पर समय देने के लिए आप सबों को मेरा हार्दिक धन्यवाद

शुभ-शुभ

Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on March 31, 2014 at 5:12pm

वाह - वाह.... हर दोहा लाजवाब सर !!!!

Comment by भुवन निस्तेज on March 31, 2014 at 8:27am

हर चूहा चालाक है, ढूँढे  सही  जहाज 
डगमग दिखा जहाज ग़र, कूद भगे बिन लाज 

सजी हाट में घूमती, बटमारों की जात 
माल-लूट के पूर्व ही, करती लत्तमलात 

नाटक के इस मंच पर, पीटे जोकर ढोल 
उलटबासियाँ चेंपता, चीखे - ’खोला पोल’ 

भौंरों को उम्मीद थी, खिलें उपट के फूल 
पर वो आँधी चल पड़ी, धूल धूल बस धूल 

दर्शक भौंचक हो रहे, देख पात्र के टेक 
उठा-पटक तो मंच पर, पर्दा पीछे एक 

bahut hi badhiya prastuti, sans thamjaye vachan karte huye...Saadar


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 28, 2014 at 3:32am

आप सुधीजनों का हृदय की गहराइयों से धन्यवाद.

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on March 27, 2014 at 7:37pm

आदरणीय सौरभ भाईजी,

चुनाव के समय सभी राष्ट्रीय दल और छुटभैये नेताओं की पोल खोलती इस व्यंग रचना पर हार्दिक बधाई ।

लोटे बिन पेंदी हुए, नेता भये गिरगिट।

पाँच बरस मस्ती किये, चुनाव समय में फिट ॥

Comment by Sachin Dev on March 26, 2014 at 2:50pm

आदरणीय सौरभ जी, चुनावी घमासान की इस रेलम-पेल को खूबसूरती से प्रदर्शित कर रहे हैं आपके ये दोहे ..... आपके इन दोहों से प्रेरित होकर इसमें एक दोहा मैं भी  लिखने की खता कर रहा हूँ सादर ...... 

भोला मतदाता बड़ा,  छला गया हर बार

नगर कटे मीठी छुरी,  गाँव पड़े लठमार

  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 26, 2014 at 11:58am

दोहे सामयिक हैं. इन्हें ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर के तौर पर साझा किया हूँ. सामाजिक होने के कारण प्रभावित होना लाजिमी ही है. लेकिन किसी व्यक्ति विशेष या किसी राजनीतिक दल विशेष के खिलाफ़ इन्हें उद्बोधन न समझा जाय.

इस हिसाब से आप सभीका अनुमोदन आश्वस्तकारी है.

सादर धन्यवाद

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2014 at 5:31pm

दर्शक भौंचक हो रहे, देख पात्र के टेक 
उठा-पटक तो मंच पर, पर्दा पीछे एक   आदरनी य सौरभ सर ..बेहद रुचिकर दोहे ..वर्तमान संदभो पर बिलकुल फिट बैठते हैं ..ये दोहा तो मुझे बहद भाया ..तहे दिल बधायी और सादर प्रणाम के साथ 

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