गंगा, (ज्ञान गंगा व जल गंगा) दोनों ही अपने शाश्वत सुन्दरतम मूल स्वभाव से दूर पर्दुषित व व्यथित, हमारे काव्य नायक 'ज्ञानी' से संवादरत हैं।
प्रस्तुत श्रंखला उन्हीं प्रवचनों का काव्य रूपांत्र है....
ज्ञानी का दूसरा प्रवचन (ज़ारी )
(लड़ी जोड़ने के लिए पिछला ब्लॉग पढ़ें....)
2.
अनुभूति तो थी समझ से परे
मन व बुद्धि की सीमा से परे
अनुभूति तो ञैकालिक थी
अनुभूति तो सर्वकालिक थी
समझ मन की पकड़ में थी
अनुभूति पकड़ में आती न थी
तर्क दलील विचार से परे
कुछ तो था जो बच जाता था
अहम् ग्रस्त मन की भूमि को छोड़ आगे निकल जाता था...
ऐसे ही जल की गंगा
तो केवल बादलों में बसी थी
बादलों में बसी गंगा सूखी मरू को
छोड़ आगे निकल जाती थी
मानव कितना पसीना बहाये-
पसीने से गंगा तो न बन पाती थी
सूखे मरू में बसे लोग
स्वर्ग की ओर ताकते रहते थे
स्वर्ग में बसी गंगा की
वे दंतकथायें बनाते रहते थे-
‘गंगा तो इंद्र राज्य की अप्सरा है, भैया!
वह यूं न धरणि पे आवेगी
कोई भारी उपकर्म करना होगा
तभी सूखी धरा कुछ दे पावेगी'
तो वे किसी भारी उपकर्म की योजना में खो जाते थे
समय और सीमा में बंधे वे लघु मानव
किसी महा मानव की कलपना करते सो जाते थे
जो उन के लिये आवारा बादलों को मनाने के लिये तैयार हो जाये
जो उन के लिये सहर्ष गंगा को लाने के लिये तैयार हो जाये
या कभी यूं हो जाता कि वर्षा आती तो थी धरती पर
छुट पुट नालों में बह कर
बेकार हो जाती थी
और शेष वर्ष भर जल हीन लोग सूखी मरू को ताकते रहते
या उन सूखे नालों को
जिन में अमुल्य गंगा बह जाती थी
ऐसे में किसी भागिरथ सरीखे महामानव का
उस सूखी मरू में गंगा लाने को
वचनबद्व होना आष्चर्य न था
जो केवल वर्षा ऋतु में ही नहीं
साल भर जलहीन लोगों को जल मुहैया करवा सके
गंगा धरणि पर ला सके
अब स्वर्ग में बसी गंगा के
बादलों में रची गंगा के
अपने ही सपने थे
वह धरती पर आना न चाहती थी
उस ने तय कर लिया था
यदि प्राकृति के नियमों ने ज़ोर डाला भी तो
अपने बादलों को वह कह देगी
पर्वत श्रंखलायों पर बरसायेगी
पेडों के झुंडों पर,
या उंची बर्फ लदी चोटियों पर
मैदानों में यहां मानव ने पेडों को काट कर
अपमानित किया प्राकृति को,
उसे उस की उदण्डता का दंड देगी
बूंद बूंद के लिये तरसायेगी
धरती पर आने का उस का मोल हिमालय से कम न था
शिव सरीखे हिमालय ने हामी भरी
तो गंगा प्रसन्नतापूर्वक धरती पर आने को तैयार हो गई
बादलों को खींच लाई
पर्वतमालायों तक
खूब बरखा बन कर बरसी
इतना ज़ोर इतना शोर
पर कोई धारा न बनी न कोई छुट पुट नाला
पूरी की पूरी समा गई गंगा
महाहिमालय महाशिव की महाजटायों में
पेड पौद्वों की टहनियों में जडों में लताओं में
उलझ गई गंगा
वनस्पति जगत में
समा गई पूरी ही गंगा
सब अहम धुल गया
पर लहजा नरम न हुआ
बोली शिव से-
(शेष बाकी)
Comment
Dhanyavaad ram shiromani pathak ji
kya kahane apke in vichaaro ko ////// uttam ati uttam adarneey बहुत बहुत साधूवाद!
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