व्यथित गंगा ज्ञानि से संबोधित है.
गंगा की व्यथा ने ज्ञानि के हृदय को झजकोर दिया है. गंगा उसे बताती है मनुष्य की तमाम विसंगतियों, मुसीबतों, परेशानियों का कारण उस का ओछा ज्ञान है जिसे वह अपनी तरक्की का प्रयाय मान रहा है.
इस ज्ञान ने उसे प्रकृति से दूर कर दिया है. वह प्रकृति को अपना लक्ष्य नहीं लक्ष्य का साधन मानता है.
पृथ्वि पर मानव के अपने स्वार्थमय कई लक्ष्य हैं. जैसे मन लुभावनी क्षणिक चकाचैंध से प्रेरित भौतिक प्रगति जिस के लिये वह प्रकृति की महत्वपूर्ण संपदा नदियों नालों के समीप अपने लिये सौंद्धर्य प्रसाधनों इत्यादि के बड़े बड़े उद्योग लगाता है. उन से निकलता रासायणक ज़हर नदियों नालों को प्रदूषित करता है और पेय पदार्थों द्वारा वापिस उसी के शरीर में प्रवेश कर रहा है.
और भी लक्ष्य हैं मानव के जैसे वह अध्यात्मिक उत्थान के नाम पर भौतिकी सुख व चकाचैंध भरे पूजा स्थल बनाना जो उस के तथाकथित ‘परमात्मा’ व ‘परमात्मा के अवतारों' के स्वर्ण गृह बन गये हैं.
उस का यह तथाकथित ‘परमात्मा’ उस की असुरक्षा की भावना से उपजा है. उस ने इस ‘परमात्मा’ को भी अपने व्यापार व भौतिक तरक्की का साधन बना लिया है.
इस सारे पचड़े में मनुष्य की बड़ी विसंगति यही है कि वह अपने इस ‘परमात्मा’ से भी उसी तरह भयभीत है जिस तरह अपनी असुरक्षा की भावना से उपजे देवी देवों शनि, राहु, केतु आदि से. नदियां भी उस के लिये इसी तरह भय का प्रतीक हैं, उन्हें देवियां मानता है पर उन के जल के रासायणक नहीं भौतिक प्रभाव यानि बाढ़ इत्यादि से भयभीत है.
अपनी भौतिक व मानसिक तुष्टि के लिये मानव के जो भी पृथ्वि पर लक्ष्य हों पर अभी तक प्रकृति की महत्वपूर्ण संपदायों को अपने व अपने बच्चों के भविष्य के लिये बचाना उस का लक्ष्य नहीं बना है.
इसी ओछे ज्ञान से मानव को निकालना और सही व ज्ञानोचित अनुभूति का संप्रेष्ण करना अब ज्ञानि का लक्ष्य है. इस के लिये उस ने मानवीय अधिवासों में जा कर प्रवचन देने का मन बना लिया है.
प्रस्तुत श्रंखला उन्हीं प्रवचनों का काव्य रूपांत्र है....
ज्ञानी का दूसरा प्रवचन
देश की भूमि पर उतरी है गंगा,
स्वर्ग से,
बादलों के शिखर से.
मन की भूमि पर उतरी है
वही गंगा ज्ञान की गंगा
अनुभूति के शिखर से.
बात तब की है जब गंगा केवल बादलों में बसी थी.
बादल जो मरू भूमि को छोड कर आगे निकल जाते थे.
उन का यह खेल सूखे मरू में बसने वाले समझ न पाते थे.
अनुभूति की गंगा भी मन को ऐसे ही चिढाती थी.
मन के मनन की तो पकड में न आती थी.
साधना व अभ्यास से कतराती थी.
अभ्यासरत मन को ...अभ्यासरत मानव को
तो मुंह न लगाती थी.
अभ्यासरत मन केवल स्वयं का पुजारी था
अभ्यासरत मानव केवल अहम् का पुजारी था
वह खोज को अहम् से इच्छा से आगे न ले जा पाता था.
अनुभूति की गंगा
केवल अनुभूति में बसी थी.
अनुभूति की गंगा तो
केवल पर्मानुभूति में बसी थी.
पर्मानुभूति का नियम पर्मानुभूति के ही अधीन था.
मन से परे, मनन से भी परे,
कहीं शून्य में लीन था.
मन की भूमि तो अहम् में गर्त थी
इसी मन को खोना अनुभूति की प्रथम शर्त थी.
(शेष बाकी)
Comment
सूक्ष्म ज्ञान और उसका स्थूल पूरक. फिर दोनों का घालमेल !? समस्त विसंगतियों का यही मूल रहा है.
प्राणी प्रण कर अपने होने के अर्थ को ढूँढता हुआ परम तत्व को प्राप्त होता है या पाता है. किन्तु जिस सूचना और गणनाओं की साझेदारी को ज्ञान का पर्याय बनाया जा रहा है जिसमें तर्किकता का कोई विन्दु नहीं और इसीको बलात घुँटवाया जा रहा है उसने आज के जन को अन्नमयकोष से आगे सोचने से रोक दिया है. लाभ और लोभ के भौतिक स्वरूप से सम्मोहित जन कायिकता से आगे जा भी कहाँ पाता है अब ? न इसके लिए उचित वातावरण ही रहा दीखता है.
गंगा इसी अन्नमयकोष से होकर मानसिकतः उर्ध्व बढ़ने की अवधारणा है.
आपको सुनना रोचक है..
डाक्टर साहिब ,
मेरी समझ के अनुसार रचना में continuity दिखाई देती ,पहले हिस्सों में दिखाए गए सवालों के जवाब भी मिलते नजर आते हैं
प्रिय केवल प्रसाद जी
आप के सौहार्दपूर्ण व प्रिय वचनों से अतियंत प्रसन्न हुआ हूँ
आप ने बहुत हौसला बढाया है। मुझे संतुष्टि हुई कि रचनाओं को उनके सही परिपेक्ष व उत्तम दृष्टि से पढने वाले हैं अभी।
मानता हूँ की रचना लम्बी है इसलिए मैं इसके छोटे 2 पार्ट्स बना कर प्रस्तुत कर रहा हूँ
मैंने गंगा (river ) का परदुषण व ज्ञान गंगा (knowledge ) में प्रदूषण यानि अनचाहा ज्ञान जो हमारे बच्चों पर थोपा जा रहा है मैंने दोनों की बात साथ साथ कर रहा हूँ।
मेरे समक्ष प्रश्न हैं जैसे :
क्या ज्ञान ;तकनीकी हो या अध्यात्मिक केवल मानवीय षोषण का ज़रीया बन रहा है?
क्या ज्ञान मानवीय मन को बदलने में सक्षम है या ज्ञान हो या न हो हमारा मन अपने ढंग से चलता रहता है?
दुनिया मे लगातार ज्ञान वृद्धि होने के बावजूद ईर्छा, द्वेष आक्रोष, अपराध भी उसी रफ़तार से बढ़ते जा रहे हैं. क्या यह तथ्य ज्ञान की सीमा की ओर इशारा नहीं करता?
क्या ज्ञान प्रतिस्पर्धा (competition ) की भावना को बढ़ा रहा है?
क्या प्रतिस्पर्धा की भावना मानवी संसाधनों के अति उपयोग और पर्यावरण अधोगति का कारण नहीं बन रही?
क्या प्रतिस्पर्धा जीवन में असुरक्षा की भावना को जन्म दे रही है जिस के चलते मनुष्य धर्म के बाहय् कर्मकांडीय रूप को जोर-षोर से अपना रहा है?
क्या हमारे अध्यात्मवेता भी हमें तोता रटन कर्मकांडों में उलझा रहे हैं?
ऐसे प्रश्न व उनके उत्तर किसी न किसी रूप में गंगा ... में आएँगे
धन्यवाद बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज) जी
आदरणीय श्रीडा0 स्वर्ण जे0 ओंकार जी, आपकी शाश्वत गंगा की खोज अत्यधिक प्रभाव पूर्ण एवं वर्तमान के परिवेश में एक कठिन तपस्या ही है जिसकी राह बड़ी दुर्गम व कठिनाइयों से भरी हुई है! आपने आज फिर एक भगीरथ जी जैसा ही तप करने का बीड़ा उठाया है। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि इन दानव रूपी नेताओं के अकूत ज्ञान और शक्ति पर आप को विजयश्री आसिल हो। आदरणीय डाक्टर साहब जी जहाॅ मेरी आवश्यकता होगी में लेखनी सहित सदैव तत्पर हूं। आपको बहुज ढ़ेर सारी शुभ कामनाएं ।
ज्ञान की गंगा का प्रवाह बना हुआ है। अति सुन्दर! बधाई स्वीकारें!
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