गंगा, (ज्ञान गंगा व जल गंगा) दोनों ही अपने शाश्वत सुन्दरतम मूल स्वभाव से दूर पर्दुषित व व्यथित, हमारी काव्य कथा नायक 'ज्ञानी' से संवादरत हैं।
प्रस्तुत श्रंखला उन्हीं प्रवचनों का काव्य रूपांत्र है....
ज्ञानी का दूसरा प्रवचन (ज़ारी )
(लड़ी जोड़ने के लिए पिछला ब्लॉग पढ़ें....)
वनस्पति जगत में
समा गई पूरी ही गंगा
सब अहम् धुल गया
पर लहजा नरम न हुआ
बोली शिव से-
‘ओफ़ हो, कहां से निकलूं
ओफ़ हो, कहां से जाऊं
अरे भाई रास्ता दो’
शिव मुस्कराये-
‘इतनी जल्दी क्या है गंगे
अभी कुछ देर विश्राम करो
मेरी जटाओं में
मेरे पेडों की पत्तियों में शाखाओं में लताओं में
ये वन उपवन,
ये सहस्रों वन प्राणि,
प्यासे हैं तुम्हारे जल के
वे व्यर्थ तुम्हें न बहने देंगे
कहीं और न जाने देंगे
अब आई हो तो थोडी सेवा सुश्रा कर लो इनकी
बहने का क्या है
कभी भी बह लेना'
गंगा नरम पड गई बोली-
‘ओ शिव ! ओ महा हिमालय!!
तुम तो अति सुंदर हो
यह तुम्हारा ललाट पर्वतों से उंचा
अंबर से मिला हुआ
वहां सुसज्जित चंद्र तुम्हारी शोभा बढा रहा है
ये तुम्हारे उंचे देवदार के वृक्ष कितने घने हैं
कितने पास पास सटे हैं
अपनी जिद पर डटे हैं
मुझे रास्ता दो भाई
मेरा वचन है- जब मैं बह निकली
तो तुम्हारे सौंदर्य को कम न होने दूंगी
तुम्हारे पगों से बहती रहूंगी
स्वयं को उच्चतम न होने दूंगी
तुम अपने रौद्र से संपूर्ण जगत में महा ऊर्जा भर देते हो
मेरी ऊर्जा पर क्यों बंधन डाल रहे हो
मेरा चंचल स्वभाव है तुम जानते हो
स्वयं में क्यों संभाल रहे हो
शिव और जोर से मुस्काये-
‘क्यों तड़प रही हो गंगे
तुम तो स्वयं बिखरी पड़ी हो
तुम्हें तो स्वयं को समेटना भी नहीं आता
बिखरी ऊर्जा से तुम महा ऊर्जा की बात करती हो
रास्ता मिल जायेगा तुम्हें
नीचे जाने का क्या है,
किसी भी देव तरू की झुकी शाखा को पकडो और बह निकलो
निमन से निमनतर होना आसान
उच्च से उच्चतर होना अति कठिन’
‘परिहास करते हो शिव’,
गंगा रूष्ट हुई,
‘अंश हूं तुम्हारा
तुम्हारी ही तरह मेरे लिये निमन क्या उच्चतम क्या
इन देव तरूयों नें खींचा है मुझे पाताल से
इन्होंने ही छोडा है मुझे आकाश में
उस उच्चतम आवस्था में भी मुझे विश्राम नहीं
तुम्हारे ये तरू खींच लायेंगे मुझे
फिर बरसूंगी बरखा बन कर
फिर बहूंगी गंगा बन कर
पहाडों में मैदानों में’
शिव हंसने लगे-
‘पर चेता रहा हूं गंगे फिर न कहना
शिव का भारी स्वर:
(शेष बाकी)
Comment
समझ गया। लेकिन रचना की निरंतरता में शिव हँसने के बाद तत्काल गंभीर हो जाते हैं। और वह गंभीर दृश्य अगली कड़ी में है। आप का इंगित करना उचित है। धन्यवाद। सौरभ पांडेय जी आगे से ख्याल रहेगा।
शिव हंसने लगे-
‘पर चेता रहा हूं गंगे फिर न कहना
शिव का भारी स्वर:
(शेष बाकी)
मेरा आशय उपरोक्त अंत से है.. .
धन्यवाद सौरभ पांडेय जी, आप के विचारों व मार्गदर्शन का सम्मान करता हूँ। मैं सोच सकता हूँ और शायद नहीं भी कि क्यों ऐसा लिखा आप ने। व्यथा के पूर्व कारणों व आगामी प्रभावों को ढूँढना और बयान करना भी अपना कर्तव्य मानता हूँ।
प्रतीकों पर सध रहा गल्प रोचक है.. .
व्यथा-कथा के धारावाहिक का अंत यों न करें.. .
शुभेच्छाएँ
धन्यवाद केवल प्रसाद जी
आदरणीय, डा0 स्वर्ण जे0 ओंकार जी, गंगा-शिव संवाद सुन्दर भाव, आपको हार्दिक बधाई! आपको सपरिवार प्रेम-सद्भावना के प्रतीक होली के पावन त्योहार पर बहुत बहुत शुभकामनाएं।
धन्यवाद मोहन जी
डाक्टर साहिब जी,
इस लड़ी को आगे बढ़ाने के लिए धन्यवाद ,इन प्रवचनों में स्वछता और स्पष्टता के दर्शन होते है, बिना किसी स्वार्थ को साधे
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