योग वस्तुतः है क्या ?
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इस संदर्भ में आज मनोवैज्ञानिक, भौतिकवैज्ञानिक और विद्वान से लेकर सामान्य जन तक अपनी-अपनी समझ से बातें करते दिख जायेंगे. इस पर चर्चा के पूर्व यह समझना आवश्यक है कि कोई व्यक्ति किसी विन्दु पर अपनी समझ बनाता कैसे है ?
किसी निर्णय पर आने के क्रम में अपनायी गयी वैचारिक राह किसी मनुष्य का व्यक्तित्व निर्धारित करती है. क्योंकि किसी निर्णय पर आने के क्रम में सभी की व्यक्तिगत एवं विशिष्ट पहुँच हुआ करती है. व्यक्तिगत एवं विशिष्ट पहुँच का कुल समुच्चय व्यक्तित्व कहलाता है, जिसे स्वनियंत्रण में रखना कई शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक (षड-आयामी) उपलब्धियो का कारण बनता है.
एक व्यक्ति का व्यक्तित्व कई अवयवों पर निर्भर करता है, जिसमें उसके वातावरण, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसके जीवन का उद्येश्य, उक्त उद्येश्य के प्रति प्रभावी सोच, जीवन की निरन्तरता में सुलभ साधन तथा उसकी शरीर सम्बन्धी क्षमता मुख्य भूमिका निभाती हैं. व्यक्तित्व को निर्धारित करते शरीर सम्बन्धी कारकों को स्थूल और सूक्ष्म दो भागों में बँटा देखा जाता है. स्थूल भाग को बाह्यकरण तथा सूक्ष्म भाग को अन्तःकरण कहते हैं. ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ बाह्यकरण के अवयव हैं, जबकि अन्तःकरण के मुख्यतः चार अवयव हुआ करते हैं - मनस, चित्त, बुद्धि और अहंकार. इन चारों को एक साथ बोलचाल में ’मन’ भी कहते हैं. दोनों करणों में अन्तःकरण के ये चारों अवयव बहुत ही प्रभावी हुआ करते हैं.
अन्तःकरण का अवयव ’मनस’ बाहरी संसार और व्यक्ति के आन्तरिक पहलू के बीच इण्टरफेस का कार्य करता है. अर्थात एक तरह से मनुष्य के बाहरी संसार और उसकी समझ और चेतना के बीच ऑपरेटिंग सिस्टम की तरह है. ’चित्त’ अनुभूतियों और अनुभवों के भण्डारन का स्थान है. वृत्ति विचार-तरंग है. यह किसी निर्णय तक पहुँचने के लिए प्रतिक्षण सूचनाएँ एकत्रित करता रहता है. जो ’चित्त’ में जमा होती रहती हैं. बुद्धि ’छनना’ है. आवश्यक विचारों के संग्रहण, रुचि के अनुसार अनुभवों के रक्षण तथा अनुभूतियों की तीव्रता को नियत करने का महती कार्य ’बुद्धि’ का है. व्यक्तित्व के अनुसार क्या आवश्यक है और क्या निरर्थक, इसकी समझ ’बुद्धि’ के पास होती है. चौथा अवयव ’अहंकार’ व्यक्ति के स्थूल और सूक्ष्म भावों के सापेक्ष व्यक्ति के होने की समझ को स्थापित करता है. ’यह मैं हूँ’ एवं जीवन के उद्येश्य के प्रति आग्रही होने की दशा को नियत रखने का कारण यह ’अहंकार’ ही है. शरीर का स्थूल स्वरूप सूक्ष्म से कितना प्रभावित होता है या स्थूल का प्रभाव सूक्ष्म पर कितना पड़ता है, यह सारा कुछ किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को गढ़ता है. स्थूल तथा सूक्ष्म के परस्पर सम्बन्ध तथा प्रवृति के अनुसार ही व्यक्तित्व स्वरूप ग्रहण करता है.
योग व्यक्तित्व के स्थूल और सूक्ष्म के बीच अंतर्सम्बन्ध को संयत एवं निर्धारित करने तथा इसे सुचारू रूप से इसे बनाये रखने की विधि अथवा उपाय का नाम है. तभी योग के प्रवर्तक पतंजलि मुनि के योग शास्त्र का दूसरा सूत्र ही ’योगः चित्तवृत्ति निरोधः’ है. अर्थात, चित्त और वृत्ति के लिए संयमन का कार्य योग करता है. यदि चित्त में सार्थक अनुभव हों जो विशिष्ट वृत्तियों का कारण होते हैं. या बाहरी वृत्तियाँ जो चित्त के अनुभवों के गहन अथवा अर्थवान होने का कारण होती हैं, उनके लिए संयमन तथा उनके आकलन का कार्य योग करता है. अतः हम यह भी कह सकते हैं कि शरीर और मन को साध कर पूरी प्रकृति के साथ एकाकार होते जाने की व्यवस्था के लिए योग सक्षम साधन उपलब्ध कराता है. अर्थात, व्यष्टि से समष्टि की अवधारणा को रुपायित होना संभव होता है. इसके लिए शारीरिक क्षमता आवश्यक होती है. इस सबलता से ही मनुष्य़ पशुवत जीवन से आगे के जीवन के गूढ़ अर्थों के प्रति आग्रही हो पाता है.
मनुष्य ऐसी क्षमताएँ विभिन्न शारीरिक मुद्राओं से, आसनों से, श्वसन व्यवस्था में नियंत्रण से, शरीर-शुद्धि से या मनस की चेतना की डिग्री को बढ़ा कर प्राप्त करता है. जिससे मनुष्य का शरीर स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों तरीके से उचित साधन बन जाता है. ऐसे सक्षम शरीर का उपयोग मनुष्य सुगढ़ अन्वेषी अथवा कुशल कारीगर की तरह कर सकता है. यही कारण है कि भारतीय वांगमय ’शरीर ही हम हैं’ की अवधारणा को कभी पोषित नहीं करते. भारतीय विचारों के अनुसार शरीर वृहद या लघु कार्य करने के लिए मिला एक ’साधन’ अथवा ’उपकरण’ मात्र है. मनुष्य का ’हम’ सतत सनातन है. मूलतः, संक्षेप में, इसी या ऐसी ही समझ की स्थापना का कारक योग है.
इस तरह स्पष्ट है कि योग आसन या व्यायाम या श्वसन-प्रक्रिया या शरीर और मन को निरोगी रखने का उपाय मात्र नहीं है. या, यह वृत्तियों या विचारों को साधने का और इस सब से सहज प्राप्य पराभौतिक-लाभों को प्राप्त करने का कारण भी नहीं है. बल्कि इन सभी का समुच्चय है, जहाँ शरीर के स्थूल स्वरूप तथा सूक्ष्म स्वरूप समवेत क्रियाशील होकर मनुष्य को एक सशक्त इकाई बना देते हैं. अन्यथा योग शास्त्र में पतंजलि आसन के लिए जो सूत्र देते हैं, वह है - ’स्थिर सुख आसनम्’. अर्थात वह शारीरिक मुद्रा या अवस्था जो शरीर को स्थिर रखे और उससे मनुष्य को सुख की अनुभूति हो. यह अलग बात है कि शारीरिक-मानसिक स्थिरता में नैरंतर्य और सुखानुभूति को प्राप्त करने के लिए आगे कई अन्य आसनों का प्रयोग प्रभावी किया गया.
योग के आठ अंग हैं. इसीसे योग को अष्टांग योग भी कहते हैं. इसमें पहले पाँच अंग, यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार को बहिरंग योग तथा धारणा, ध्यान तथा समाधि को अंतरंग योग कहते हैं. अर्थात आसन और प्राणायाम योग के दो अंग मात्र हैं, न कि सम्पूर्ण योग ही आसन और प्राणायाम हैं, जैसी कि साधारण समझ बन गयी है. यम के पांच अन्य अवयव हैं जिनके निरन्तर परिपालन से मनुष्य अपने समाज में स्वयं को सात्विक एवं अनुशासित इकाई की तरह प्रस्तुत करता है. नियम के भी पाँच अवयव हैं जिनके निरन्तर परिपालन से कोई मनुष्य अपने ’स्व’ के साथ व्यवहार करने लायक होता है. आसन विभिन्न शारीरिक मुद्राएँ हैं जिनके निरन्तर अभ्यास से शरीर सबल तथा सक्षम होता जाता है. प्राणायाम के अभ्यास से श्वशन-प्रक्रिया को सुव्यवस्थित और सुसंचालित कर अन्तःकरण के चारों अवयवों (मन) को संयमित किया जाता है. प्रत्याहार का सतत अभ्यास अवांछित तथा अन्यथा लाभ के प्रति निर्लिप्तता के भाव सबल करता है. अर्थात जितने की आवश्यकता हो उतने को ही स्वीकारना या व्यक्तिगत व्यवहार में लाना ! धारणा, ध्यान तथा समाधि एकाग्रता में सोचने तथा उस गहन सोच को विधिवत प्रस्फुटीकरण के कारण उपलब्ध कराते हैं. संक्षेप में कहा जाय तो यही सारी व्यवस्था योग है.
इस तरह, यह स्पष्ट है कि योग की अवधारणा ’मनुष्य का बहुआयामी विकास’ है, न कि किसी पंथ विशेष के कर्मकाण्ड की प्रतिस्थापना.
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-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी
योग के विस्तृत स्वरुप को समास में समझाने का जो प्रयास किया वह पाठक को योग का महत्त्व समझाने में अवश्य सहायक है . खासकर उन्हें जो इसके बारे में कुछ नही जानते i योग तो ब्रह्मानंद सहोदर का साक्षात्कार कराता है अनहद की हद में ले जाता है . जिस योग को आम लोग जानते है वह तो महज प्राणायाम है . हमारी पहुँच तो सही ढंग से प्राणायाम तक भी नहीं है फिर यम,नियम, ध्यान, धारणा और समाधि की तो बात ही क्या ? आपके लेख की विशेषता यह है कि यह उतनी ही बात कहता है जितनी सामान्य जन के लिय आवश्यक है, इसके विस्तार में शायद ही कोई जाना चाहे i यह बात विशेष रूप से ध्यातव्य है कि योग व्यायाम नहीं है यह श्वसन के नियंत्रण और मन की एकाग्रता का एक साधन है . इसे जो धर्मसे जोड़ते है, वे वस्तुतः भ्रम में हैं . आपको इस सुन्दर आलेख केलिय बधाई . सादर.
आदरणीय सौरभ भाई , बहुत सार गर्भित , सटीक , और संतुलित आलेख है । समुद्र जैसे विशाल भंडार में से उतना ही निकल के सामने लाना जितना कि सामान्य जन के लिये आवश्यक है , मै इसे छोटी बात नहीं समझता । समझाने मे सक्षम पर अनावश्यक कुछ भी नहीं ।
बधाई कमज़ोर शब्द है , अतः नमन आपको ॥
योग को वस्तुतः पतंजली ऋषि ने समझाने के प्रयास किया है उसकी सुंदर व्याख्या की है आपने आदरणीय -
योग के आठ अंग हैं. इसीसे योग को अष्टांग योग भी कहते हैं. इसमें पहले पाँच अंग, यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार को बहिरंग योग तथा धारणा, ध्यान तथा समाधि को अंतरंग योग कहते हैं. अर्थात आसन और प्राणायाम योग के दो अंग मात्र हैं, न कि सम्पूर्ण योग ही आसन और प्राणायाम हैं | इसमें "यम" और "नियम" को स्पष्ट कर ज्ञानार्जन करते तो और लाभान्वित होते |
योग दिवस पर इस सुंदर, ज्ञानवर्धक और लाभवर्धक आलेख के लिए बहुत बहुत बधाईयाँ एवं साधुवाद
मुझ जैसे पाठक जिसको योग की ए बी सी तक पता नहीं ,के लिए बहुत लाभकारी ज्ञानवर्धक आलेख है योग दिवस पर |आपको बहुत बहुत बधाई आ० सौरभ जी इस आलेख के लिए |
योग की अवधारणा को स्पष्ट करता,बहुत ही लाभकारी और सार्थक लेख,आभार आ० सौरभ सर!!
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