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दोपहर की धूप में बादल के जैसे छा गए
मह्रबां बन कर वो मेरी ज़िंदगी मेें आ गए//१
ज़िन्दगी जीते रहे हम दुश्मनों की भीड़ में
रहबरों के संग में ही आके धोका खा गए //२
झूठ सीना तान कर मैदान में अब चल रहा
सच ज़ुबाँ पे जो भी लाए वे खड़े शरमा गए //३
सर उठाओ ना हमारे सामने सागर हैं हम
ताल हो तुम एक बारिस देखकर बौरा गए //४
भीड़ में वो खो गए जो मर मिटे ईमान पर
छापकर अख़बार झूठे सुर्खियों में आ गए //५
-- क़मर जौनपुरी
Comment
आ. भाई कमर जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय।
बहुत सूंदर
हार्दिक बधाई आदरणीय क़मर जौनपुरी जी। बहुत सुंदर गज़ल।
भीड़ में वो खो गए जो मर मिटे ईमान पर
छापकर अख़बार झूठे सुर्खियों में आ गए //५
जनाब क़मर जौनपुरी साहिब आदाब,सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे बधाई स्वीकार करें. सादर
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब। आपकी इस्लाह से ग़ज़ल मुकम्मल हुई।
जनाब क़मर जौनपुरी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' दोपहर की धूप में बादल सरीखे छा गए
तुम हमारी जिंदगी में मह्रबां बन आ गए'
इस मतले को यूं करलें,गेयता बढ़ जाएगी:-
'दोपहर की धूप में बादल के जैसे छा गए
मह्रबां बनकर वो मेरी ज़िंदगी मे आ गए'
' दुश्मनों की भीड़ में हम जिंदगी पाते रहे
रहबरों के संग में ही आके धोका खा गए'
इस शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ की सूरत बन गई है,ऊला मिसरा यूँ कर लें:-
"ज़िन्दगी जीते रहे हम दुश्मनों की भीड़ में'
' हम समंदर हैं हमारे सामने ना सर उठा
ताल हो तुम एक बारिस देखकर बौरा गए'
इस शैर में शुतरगुरबा दोष है,इसे यूँ कर लें:-
'सर उठाओ न हमारे सामने सागर हैं हम
ताल हो तुम एक बारिश देखकर बौरा गए'
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