2122 2122 2122 212
सब परिंदे लड़ रहे हैं, आसमां भी कम है' क्या
इन सभी के हाथ में अब मज़हबी परचम है' क्या //१
क्यूँ सभी के अम्न के, क़ातिल बने हो रहबरों
घर चलाने के लिए घर में कहीं कम ग़म है क्या //२
एक क़तरा अश्क भी जो दे नहीं, वो हमसफ़र
दर्द से जो रोज़ खेले वो भला हमदम है क्या //३
दर्द से व्याकुल मरीज़ों के बने थे चारागर
जो दवा नासूर कर दे वो भला मरहम है क्या //४
जल रही हो जब ये धरती जल रहा हो जब चमन
ऐसे में जब आग बरसे ये भला मौसम है क्या //५
-- क़मर जौनपुरी
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय क़मर जौनपुरी जी। बहुत सुंदर गज़ल।
दर्द से व्याकुल मरीज़ों के बने थे चारागर
जो दवा नासूर कर दे वो भला मरहम है क्या //४
जनाब क़मर जौनपुरी साहिब आदाब, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे बधाई स्वीकार करें. सादर
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब अजय तिवारी साहब हौसला आफ़ज़ाई के लिए। ऐसे ही इस्लाह का सिलसिला बनाये रखिये।
आदरणीय कमर साहब, अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
जनाब क़मर जौनपुरी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' दे दवा नासूर कर दी ये भला मरहम है क्या'
इस मिसरे को यूं कर लें:-
'जो दवा नासूर कर दे वो भला मरहम है क्या'
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