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नारियल- लघुकथा

"आज तो मैं जा के ही रहूंगी, चाहे पुलिस का डंडा ही क्यों न खाना पड़े", उसने एक नजर बिस्तर पर बीमार पड़े पति और भूख से बेचैन दोनों बच्चों को देखते हुए कहा.
बड़े बेटे ने साथ में सुर मिलाया "मैं भी चलूँगा अम्मा, वो तीसरे माले वाली ऑन्टी मुझे कितना मानती हैं".
उसने दृढ़ता से मना कर दिया "मुझे तो शायद छोड़ देंगे लेकिन तुझे नहीं छोड़ेंगे. तू यही छोटे का ख्याल रख, मैं कुछ लेकर आती हूँ".
बाहर निकलकर जैसे ही वह सड़क पर पहुंची, एक पुलिसवाला डंडा फटकारते हुए आया "कहाँ जा रही है, पता नहीं है कि निकलने पर पाबन्दी है?
वह पलटकर खड़ी हो गयी और इन्तजार करने लगी. पुलिसवाले ने आश्चर्य से पूछा "अब ऐसे क्या खड़ी हो गयी, वापस जा".
उसने खड़े खड़े ही जवाब दिया "पेट पर तो लात पड़ ही गयी है, आप पीठ पर भी डंडा लगा दो. लेकिन भूखे बच्चों के लिए कुछ ले आने दो साहब".
पुलिस वाला कुछ देर खड़ा रहा, फिर धीरे से बोला "यहीं रुक, मैं आता हूँ"
कुछ देर बाद वह अपने कोठरी में खाने के दो पैकेट लेकर पहुँच गयी, उधर पुलिस वाले ने अपने साथी को फोन लगाया "भाई शाम को आना तो कुछ खाने के लिए लेते आना".


मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on April 27, 2020 at 12:36pm

इस हौसला बढ़ाने वाली टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ तेज वीर सिंह जी

Comment by TEJ VEER SINGH on April 24, 2020 at 9:33pm

हार्दिक बधाई आदरणीय विनय जी। बेहतरीन लघुकथा।

Comment by विनय कुमार on April 23, 2020 at 11:31am

इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ सालिक गणवीर साहब

Comment by सालिक गणवीर on April 22, 2020 at 6:12pm
कम शब्दोँ में बड़ी बात . सुंदर रचना. बधाइयां स्वीकार करें.

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