पास उसके शक्ति श्रम की, पास उसके नूर है
वह जगत निर्माण करता अलहदा मजदूर है।।
घर खुला आकाश उसका औ शयन को है धरा
अस्थि पंजर शेष काया देख लगता अधमरा।।
भूख पीड़ित वो, नहीं कुछ और बातें सोचता
क्लेश चिन्ता दीनता तन रुग्ण यौवन नोचता।।
पास उसके पेट, भोजन चाहिए हर हाल में
ढूंढता जिसको फिरे वो ज़िन्दगी जंजाल में।।
वो बनाया ताज लेकिन नृप हुआ मशहूर है
जात क्या औ धर्म क्या मजदूर तो मजदूर है।।
पाँव में जूता नहीं कुरता फटा तन मौन है
पूछता खुद से हमेशा वो कि आख़िर कौन है।।
हर तरह से मार खाता क्योकि वो मजदूर है
जन्म से जो मौत तक केवल रहा मजबूर है।।
धूप में तपता कभी तो भीगता बरसात में
कपकपाता है सदा वो सर्दियों की रात में
उस समय बेबस बने राशन नहीं यदि पास है
फिर बिना उद्देश्य रखता अनवरत उपवास है।।
काल कवलित बाल बच्चे भूख से लाचार हो
दुर्दशा उस काल की वो खुद अगर बीमार हो।।
क्षुब्ध शोषित स्वेद लथपथ दम्भ चकनाचूर है
देखकर लगता यहीं क्यों वक़्त इतना क्रूर है।।
है श्रमिक औरत अगर ढकती सदा ही लाज को
दूर हो हर गिद्ध से करती दुरह सम काज को।।
वो हथौड़े को पटक के गिट्टियाँ गढ़ती दिखे
गर्भ में बच्चा लिए या सीढ़ियां चढ़ती दिखे।।
हाशिये पर वो पड़ी लड़ती पुरुष अभिमान से
यौन शोषण या दमन में नार जाती जान से।।
हो पुरुष या नार कोई मजदूर उसकी जात है
सुख विमुख आहार जिसका नून रोटी भात है।।
सम्पदा वह देश का निर्माण उसके नाम है
भीष्म सा ता-उम्र ही करता यहाँ संग्राम है।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 अवनीश धर द्विवेदी जी सादर अभिवादन। रचना पर आपकी उपस्थिति और प्रतिक्रिया के लिए आभार। सादर
आद0 गिरधर सिंह गहलोत जी सादर अभिवादन। आपका सुझाव उत्तम है। कदाचित मैं इसे गीत में बदलना भी चाह रहा था पर कर न पाया। अगली बार कोशिश करूँगा। आभार आपका, सुझाव और आशीष देने के लिए।
आद0 विनय कुमार जी सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति और प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार।
सुन्दर सृजन हुआ है , गीतिका छंदों में , इसे गीत का रूप दिया जा सकता था | गीतिका छंद में संभवतः १४,१२ पर यति का प्रावधान है | चूँकि आपने मात्रा पतन नहीं किया है तो यति रख सकते हैं | गीत का रूप देने के लिए हर अन्तरे की अंतिम पंक्ति को मुखड़े से तुकांत करना होता है एवं समान मात्रा भार रखना होता है | हर अन्तरे की पंक्तियाँ भी बराबर रखनी आवश्यक है |
बहुत बेहतरीन और सार्थक सृजन, बहुत बहुत बधाई आ सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी
आद0 सूबे सिंह सुजान जी सादर अभिवादन। कोटिश आभार आपका।
आद0 समर कबीर साहब सादर प्रणाम। आपके सुझाव अनुसार बदल दिया। कोटिश आभार आपका। स्नेह बनाये रखे।सादर
बहुत गहर संवेदनशीलता रचना है बहुत बहुत बधाई हो आदरणीय
'कपकपाता है कभी जाड़े की ठंडी रात में'
इसका मात्रा भार भी 2122 2122 2122 212 ही है बस एक शब्द में मात्रा पतन किया है,इससे बचना है तो यूँ कर सकते हैं:-
'कपकपाता है सदा वो सर्दियों की रात में'
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