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जो नज़र से पी रहे हैं
बस वही तो जी रहे हैं
ये हमारा रब्त देखो
बिन मिलाए पी रहे हैं
कोई रिन्द भी नहीं हम
बस ख़ुशी में पी रहे हैं
इक हमें नहीं मयस्सर
गो सभी तो पी रहे हैं
क्या पिलाएंगे हमें जो
तिश्नगी में जी रहे हैं
वो हमें भी तो पिला दें
जो बड़े सख़ी रहे हैं
बेख़ुदी की ज़िन्दगी है
बेख़ुदी में पी रहे हैं
वो पिलाएंगे हमें भी
इस उमीद जी रहे हैं
कोई लब रहे न प्यासा
कह तो वो यही रहे हैं
ये 'अमीर' बेकसी हम
महवे - तिश्नगी रहे हैं
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय जनाब रवि भसीन 'शाहिद' साहिब आदाब ।
ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया ।
"क्या पिलाएंगी हमें वो * निग्हें जो झुकी हुई हैं" इस शेअ'र में ग़लती से रदीफ़ बदल गयी है, शेअ'र हटाने की सोच रहा हूँ। आपसे भी मदद की दरख़्वास्त है।
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वो पिलाएंगे हमें भी
इस उम्मीद जी रहे हैं/
जनाब-ए-आली, इस शे'र के सानी मिसरे में 'उम्मीद' को 'उमीद' (बिना तश्दीद के) लिखना मुनासिब होगा, इसे बह्र में रखने के लिए।
जी मैं आप से सहमत हूँ। मगर यहीं ओ बी ओ पर मेरे एक उस्ताद-दोस्त ने मेरी एक ग़ज़ल पर इस्लाह पर मुझे बताया था कि :
//जब आपके अश'आर की तक़ती'अ की जाएगी तो इन अल्फ़ाज़ को उस तरह से पढ़ा जाएगा जिस तरह आपने लिखा है, लेकिन हुज़ूर जब आप अपनी ग़ज़ल लिखित रूप में पेश करेंगे हैं तो उसमें साधारण हिज्जे ही लिखेंगे, जो आम लोग पढ़ सकें, और जिनमें से बहुत से ऐसे होंगे जिन्हें अरूज़ और तक़ती'अ की समझ नहीं होगी।//या फिर जैसा आप कहें। सादर।
मुहतरम जनाब सालिक गणवीर जी, आदाब। ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया।
जी भूल हो गयी, सुधार करता हूँ या शेअ'र हटाता हूँ, कोई सुझाव हो तो फ़रमाएं। सादर।
मुहतरम जनाब सालिक गणवीर जी, आदाब। ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया।
जी भूल हो गयी, सुधार करता हूँ या शेअ'र हटाता हूँ, कोई सुझाव हो तो फ़रमाएं। सादर।
आदरणीय अमीरूद्दीन 'अमीर' साहिब
आदाब
छोटी बह्र में बड़ी ग़ज़ल कही है आपने. मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें. शाहिद साहिब ने बता ही दिया है ,एक शैर में रदीफ़, 'रहे हैं' कि बजाय 'हुई हैं' ,हो गई है.
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब, छोटी बह्र में शानदार ग़ज़ल कही आपने। कृपया दाद और बधाई स्वीकार करें। ग़ज़ल का मतला ख़ास तौर पर पसंद आया।
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वो पिलाएंगे हमें भी
इस उम्मीद जी रहे हैं/
जनाब-ए-आली, इस शे'र के सानी मिसरे में 'उम्मीद' को 'उमीद' (बिना तश्दीद के) लिखना मुनासिब होगा, इसे बह्र में रखने के लिए।
/क्या पिलाएंगी हमें वो
निग्हें जो झुकी हुई हैं/
हुज़ूर, इस शे'र में रदीफ़ 'रहे हैं' से बदल कर 'हुई हैं' हो गई है।
मुहतरमा डिम्पल शर्मा जी, आदाब।
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया ।
आदाब मोहतरम , बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है , बधाई स्वीकार करें।
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