For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

उनके ख़्वाबों पे ख़यालात पे रोना आया.(ग़ज़ल : सालिक गणवीर)

(2122 1122 1122 22/112)

उनके ख़्वाबों पे ख़यालात पे रोना आया
अब तो मत पूछिये किस बात पे रोना आया

देखता कौन भरी आँखों को बरसातों में
फिर से आई हुई बरसात पे रोना आया

आप चाहें तो जो दो दिन में सुधर सकते हैं
उन बिगड़ते  हुए हालात पे रोना आया

मुद्दतों जिनके जवाबात को तरसा हूँ मैं
आज कुछ ऐसे सवालात पे रोना आया

मुझको मालूम था अंजाम यही होना है
जीत रोने से हुई मात पे रोना आया

दिन सिसकते हुए गुज़रा है बड़ी मुश्किल से
अब सुबकती हुई इस रात पे रोना आया

काश दुनिया में सभी लोग बराबर होते!
आज फिर ऐसे ही जज़्बात पे रोना आया

आगे आती थी हँसी वस्ल की बातों पे मगर
आज क्यों ज़िक्र-ए-मुलाक़ात पेे रोना आया

लम्स जिसका था मुझे जान से प्यारा 'सालिक'
उसी मेेंहदी से सजे हाथ पे रोना आया

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

-------------------------------------------------------

साहिर लुधियानवी की कालजयी ग़ज़ल

"कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया"

की ज़मीन पर इस अदने से शाइर का विनम्र प्रयास.

आदरणीय भाई रवि भसीन 'शाहिद'को सादर समर्पित.

क्योंकि उनकी ग़ज़ल ने ही  प्रेरित किया है.

Views: 869

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on July 30, 2020 at 9:08pm

आदरणीय सालिक गणवीर साहिब, आपको इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल पर बहुत बहुत बधाई! आपने ग़ज़ल मुझे समर्पित कर के जो इज़्ज़त बख़्शी है उसका शुक्रिय: अदा करने के लिए मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं हैं। हमेशा ख़ुश रहें, सलामत रहें! आपका ये शे'र बहुत अच्छा लगा:
   काश दुनिया में सभी लोग बराबर होते
   आज फिर ऐसे ही जज़्बात पे रोना आया

मैं साहिर लुधियानवी साहिब की शाइरी का आशिक़ हूँ। और मेरे लिए ये ग़ज़ल एक चुनौती थी, क्योंकि इस रदीफ़ को निभाना (व्याकरण के ज़ाविये से) बहुत कठिन है। वैसे आपको बता दूँ कि मैंने ग़ज़ल उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब से इस्लाह के बाद पोस्ट की थी, और तीन अशआर रद्द भी करना पड़े। अपने कुछ विचार पेश कर रहा हूँ (कुछ अल्फ़ाज़ को bold कर रहा हूँ, व्याकरण और रब्त के नुक़्तों को स्पष्ट करने के लिए):

/आप चाहेंगे तो दो दिन में सुधर सकते हैं
देख बिगड़े हुए हालात पे रोना आया/
भाई जान, सानी में 'पे' अनावश्यक हो गया है – यहाँ 'को' तो आ सकता है मगर 'पे' नहीं। अगर नस्र में लिखा जाए तो ये मिस्रा बिना 'पे' के अपने आप में मुकम्मल है: बिगड़े हुए हालात देख (कर) रोना आया। रदीफ़ में जो 'पे' है, उसे निभाने के लिए एक प्रयास देखिए:
   2122 / 1122 / 1122 / 22 (112)
   आप चाहें तो जो दो दिन में सुधर सकते हैं
   उन बिगड़ते हुए हालात पे रोना आया

/उन जवाबों के लिए अब भी तरसता हूँ मैं
आज कुछ ऐसे सवालात पे रोना आया/
जी, दोनों मिस्रों में सहीह रब्त के लिए ज़रूरी है कि ऊला में 'उन' की बजाए 'जिन के' लाया जाए। एक प्रयास:
   2122 / 1122 / 1122 / 22 (112)
   मुद्दतों जिन के जवाबात को तरसा हूँ मैं
   आज कुछ ऐसे सवालात पे रोना आया

/मुझको मालूम था अंजाम यही होना है
जीत रोने से हुई मात पे रोना आया/
आदरणीय, सानी मिस्रे का मफ़हूम स्पष्ट नहीं है।

/वस्ल का ज़िक्र भी होने से हँसी आती है
हो न पाई जो मुलाक़ात पे रोना आया/
भाई जान, सानी में 'उस' की कमी महसूस हो रही है, और दोनों मिस्रों में रब्त की कमी भी महसूस हो रही है। सानी में 'जो' के बिना एक प्रयास (ताकि 'उस' की ज़रूरत ख़त्म हो जाए):
   2122 / 1122 / 1122 / 22 (112)
   आगे आती थी हँसी वस्ल की बातों पे मगर
   आज क्यूँ ज़िक्र-ए-मुलाक़ात पे रोना आया

/कौन रोता है कटे पैर को लेकर 'सालिक'
देख कर उसके कटे हात पे रोना आया/
आदरणीय, ऊला के मफ़हूम से सहमत नहीं हूँ, कटे पैर पे तो रोना आएगा ही। और सानी मिस्रे में फिर वही दोष है कि 'पे' अनावश्यक हो गया है, 'देख कर' की वज्ह से। अगर नस्र में कहें तो: उसके कटे हाथ देख कर रोना आया – ये मिस्रा बिना 'पे' के अपने आप में मुकम्मल है। फिर वही बात कि उस स्थान पर 'को' तो आ सकता है मगर 'पे' नहीं। 'हाथ' को क़ाफ़िया लेकर एक प्रयास:
   2122 / 1122 / 1122 / 22 (112)
   लम्स जिसका था मुझे जान से प्यारा 'सालिक'
   उसी मेहंदी से सजे हाथ पे रोना आया
(जी इस बह्र के पहले रुक्न को 1122 लिया जा सकता है)

Comment by सालिक गणवीर on July 30, 2020 at 9:05pm

मुहतरमा डिंपल शर्मा जी.
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.

Comment by Dimple Sharma on July 30, 2020 at 4:53pm

आदरणीय सालिक गणवीर जी नमस्ते, खुबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service