(2122 1212 22/122)
लोग घर के हों या कि बाहर के
प्यार करिएगा उनसे जी भर के
जाने क्या कह दिया है क़तरे ने
हौसले पस्त हैं समंदर के
जिस्म पर जब कोई निशाँ ही नहीं
कौन देखेगा ज़ख़्म अंदर के
दोस्ती उन से कर ली दरिया ने
जो थे दुश्मन कभी समंदर के
एक शीशे से ख़ौफ़ खाते हैं
लोग जो लग रहे थे पत्थर के
एक बस माँ को बाँट पाए नहीं
घर के टुकड़े हुए बराबर के
गरचे हर घर की है कहानी ये
सिर्फ़ चर्चे हुए मिरे घर के
यूँ तो पाबंदियाँ है उड़ने पर
पर निकल आए हैं कबूतर के
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
मुहतरमा डिंपल शर्मा जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और सराहना के लिए हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ. सादर एवं सप्रेम.
आदरणीय हर शेर कमाल है समझ नहीं आ रहा किसे ज्यादा दाद दूं, बस मतला कमजोर लग रहा है , इस ग़ज़ल ने दिल ले लिया वाह बहुत उम्दा आदरणीय।
आदरणीय सालिक गणवीर जी नमस्ते, वाह बहुत ख़ूब,इस खुबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
भाई बृजेश कुमार'ब्रज'
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और सराहना के लिए हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ. सादर एवं सप्रेम.
बड़ी ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई ज़नाब सालिक जी...
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और सराहना के लिए हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ. सादर एवं सप्रेम.
मुहतरमा 'महक' जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और सराहना के लिए हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ. सादर एवं सप्रेम.
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । इस लाजवाब गजल के लिए ढेरों बधाईयाँ ।
भाई सुरेश नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और सराहना के लिए हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ. सादर एवं सप्रेम.
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