मापनी
१२२ १२२ १२२ १२
कई ख़्वाब देखे मचलते हुए.
तुम्हीं आये हरदम टहलते हुए.
तबस्सुम के पीछे छिपे कितने ग़म,
कभी मोम देखो पिघलते हुए.
जहाँ भी हमें सत्य बेबस मिला,
वहीं पर दिखा झूठ फलते हुए.
कभी कुछ न सोचा तुम्हारे सिवा,
मुहब्बत की राहों पे चलते हुए.
जो तुमने बुलाया हमें चाय पर,
चले आये हम भी उछलते हुए.
अगर सच कहें तो मजा आ गया,
जो देखा रकीबों को जलते हुए.
मुहब्बत की राहें न आसान थीं,
मैं मंजिल पे पहुँचा सँभलते हुए.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय आशीष यादव जी सादर नमस्कार
आपकी हौसला अफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
वाह, क्या बात है। बहुत खूब। बधाई स्वीकार हो।
आदरणीय समर कबीर जी सादर नमस्कार
बहुत दिनों के बाद आपकी उपस्थिति एवं हौसला अफजाई को सादर नमन
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी सादर नमस्कार!उम्दा ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद।
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाअफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आ. भाई बसंतकुमार जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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