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हर सम्त अंँधेरा है इसे दूर भगाओ
है कोई मुनव्वर तो मिरे सामने आओ
क़ातिल हो तो क़ातिल की तरह पेश भी आओ
घायल हूँ मिरे ज़ख़्म पे मरहम न लगाओ
कोई न उठाएगा यहाँ बोझ तुम्हारा
शानों को ज़रा और भी मजबूत बनाओ
कश्ती को सँभालो न रहो चूर नशे में
गर डूबना है डूबो हमें तो न डुबाओ
काँटों की तो तासीर है वो चुभते रहेंगे
तुम फूल हो ख़ुशबू की तरह फैलते जाओ
ऐसे भी वो करता है सर-ए-आम फ़ज़ीहत
पर काट के कहता है मुझे उड़ के दिखाओ
मुमकिन तो न था फिर भी तुम्हें दे दी मुआफ़ी
अब छूट है तुमको नया इल्ज़ाम लगाओ
'सालिक' तो चला जाएगा दुनिया से किसी दिन
आएगा नहीं लौट के कितना भी बुलाओ
*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अमीरूद्दीन 'अमीर'साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.
आदरणीय जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
उस्ताद-ए-मुहतरम समीर कबीर साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.आपकी इस्लाह के बिना ग़ज़ल का मुकम्मल होना मुमकिन नहीं था, मुहतरम.
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'चारो - सू अंँधेरा है इसे दूर भगाओ
मतले के ऊला में 'चारों सू' ग़लत है,सहीह शब्द है "चार सू"ऊला यूँ कर सकते हैं:-
'हर सम्त अँधेरा है इसे दूर भगाओ'
'घाइल हूँ मिरे ज़ख़्म पे मरहम न लगाओ'
इस मिसरे में 'घाइल' को "घायल" कर लें ।
'मुमकिन तो नहीं था तुम्हें पर माफ़ किया है'
इस मिसरे में सहीह शब्द "मुआफ़" है, देखियेगा ।
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