खालीपन का भारीपन
नहीं मालूम, नहीं मालूम मुझको
मेरा यह अनुभव केवल मेरा ही है
या है यह हर किसी का
कहीं कुछ खो देने की पीड़ा से निवर्त होने का
अनवरत प्रारम्भिक प्रयास
अजीब है न मन का कोना-कोना
उर के आँगन में सूनी-सी सन्धया में
आंतरिक अकेलेपन से उकता कर
कुछ झल्ला कर
मेरा बाहर की भीड़ में चले जाना
और कुछ ही पल में उसी भीड़ में
स्वयं को और भी अकेला पा कर
कुछ और ट्कड़े-टुकड़े हो कर
अपने व्यक्तित्व के कंधे का सहारा लिए
अपने उसी अकेले घर वापस लौट आना
कुछ ही पल में उस "बाहर" में
क्या न देखा मैंने अकल्पित कोलाहल में
व्यथित व्याकुल तीव्रतम संघर्ष
आदर्शहीनता का दबाव
हो जैसे व्यक्तित्व के सूखे रीते खेतों में
आत्मज्ञान का असीम भंयकर अभाव
हर कोई वहाँ हर किसी के आदर्शों का
कलात्मक मूल्यांकन करते न थकता था
हर कोई हाथ में थामे था मानो
आत्मकेन्द्रिए अहंकार की मदिरा का गलास
हिलता-डुलता चलता मानो मधहोश
अपनी ही गढ़ी प्रधानता के भ्रम में
था व्यस्त वह कब से आत्मविभोर
बुन रहा अविरल एक और
आत्मविनाशी मिथ्या कल्पनाजाल
अच्छा लगता है कितना अब ऐसे में
कुछ बेसुध ही सही
उस भीड़ के दायरे से बाहर
घर लौट आना
और बुद्धि और विवेक की
आनन्दमय मधुरिमा में
अपने घर को अब खाली न पाना
बैठे देखना खिड़की की सलाख़ों से
छन कर आती आस की नई धूप की
हर नवीन किरण-रेखा को
आत्मबोध !
किसी और के दुख पर मरहम बन
इस नव उन्माद में तन्मय होकर जीना
मेरे लिए बहुत, बहुत कार्य बाकी है अभी
यह अवशेष जीवन है विधाता से उपहार
रूकने का नहीं है मेरे पास अवकाश
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मेरे प्रिय मित्र सुशील जी, आशीष जी, और भाई समर कबीर जी
बहुत ही लम्बे अरसे के बाद आज ओ बी ओ पर आया हूँ। मुझको दुख है कि आपके स्नेह का मैंने उचित आदर न किया, मैं यहाँ पहले न आया। ओ बी ओ, फ़ेस बुक.. सब जगह कम आ पाया हूँ। कुछ मानसिक, कुछ शारीरिक स्थिति ऐसी रही... क्या जाने, कौन जाने इनमें से किस का प्रभाव पहले किस पर पड़ा।आपने इस रचना को इतना मान दिया, आभारी हूँ। आशा है कि आप मुझको विलम्ब के लिए क्षमा कर देंगे।
आपके सुख की प्रार्थना लिए...
सस्नेह और सादर,
विजय निकोर
सच में यह पढ़कर आत्मबोध होता है। स्वयं के अंदर झांकना फिर बाहर देखना, उकता जाना, फिर आनंद पाना बहुत कुछ है। बधाई स्वीकार कीजिए।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, हमेशा की तरह एक बहुत उम्द: रचना हुई है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आत्मबोध !
किसी और के दुख पर मरहम बन
इस नव उन्माद में तन्मय होकर जीना
मेरे लिए बहुत, बहुत कार्य बाकी है अभी
यह अवशेष जीवन है विधाता से उपहार
रूकने का नहीं है मेरे पास अवकाश
वाह आदरणीय विजय निकोर जी वाह जब भी आपकी रचनाओं से साक्षात्कार होता है अन्तस् में एक गहनता का अनुभव होता है। इस अप्रतिम सृजन के लिए दिल से बधाई और सादर नमन।
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